सोमवार, जुलाई 27, 2015

13 वर्ष पहले यूं बदली मेरी जिन्दगी

27 जुलाई 2002 का दिन! आज भी जेहन से निकलता नहीं। खड़े पांव फैसला। बिना कुछ सोचे समझे चल दिया। तब दिमाग कहां चलता था, बस कुछ करना था, खेतों से निकलकर शहर में आने की जिद्द थी। दोपहर का समय था, अजीत अख़बार के उप कार्यालय के बाहर खड़ा था, गांव जाने के लिए बस स्टेंड के लिए निकलने वाला था, अचानक सामने से मेरा भार्इ आया, जो मुझे नहीं पता क्या करता था, सिर्फ इतना पता था नौकरी करता है, उसने कहा, मैंने नौकरी छोड़ दी। मैंने तुरंत अपने मौसी के बेटे यानी मेरे बड़े भार्इ बलवीर चंद शर्मा को कहा, मुझे यह नौकरी मिल सकती है। उसने कहा, नहीं तुमको मौसी ने गांव में बुलाया है, तुम को आगे पढ़ना है। मैंने अंदर आॅफिस में जाकर अपने फुफा जी से निवेदन किया, जो अजीत समाचार पत्र में सीनियर स्टाफ रिपोर्टर थे एवं आज भी उम्र के रिटायरमेंट वाले पड़ाव पर निरंतर अपने कार्य को सम​र्पित हैं। उन्होंने कहा, तुम कर लोगे। मैंने कहा, जो भी मिलेगा कर लूंगा। उन्होंने दैनिक जागरण फोन लगाया। मैं दैनिक जागरण के कार्यालय में पहुंचा। तत्कालीन कार्यालय प्रभारी ने कहा, तुम काम कर सकते हो, मैंने कहा, बिलकुल। काम मुझे अभी तक भी पता नहीं था। बाद में पता चला, आॅफिस मैसेंजर,। उन्होंने कहा, कल से शुरू करोगे, मैंने कहा, कल किसी ने देखा। बस इतना सा कहना था, पहले ही दिन वेतन १५०० से उछलकर १७०० रुपये हो गया, आैर बंदा गांव की खेतीबाड़ी छोड़कर जुट गया, नौकरी अभियान में। हालांकि, यह नौकरी करना आसान नहीं था, मगर, सम्मानजनक एवं वरिष्ठ संवाददाता हरिदत्त जोशी, रणधीर सिंह गिल्लपत्ती एवं अन्य सभी तत्कालीन कार्यालय कर्मचारियों का पूरा सहयोग मिला, आैर बंदा आॅफिस मैसेंजर से कंप्युटर आॅपरेटर, संवाददाता, पेजमेकर, पंजाबी से हिन्दी अनुवादक ना जाने क्या क्या बन गया, ये सभी जिम्मेदारियां एक समय ही निभार्इ गर्इ हैं। दो साल पहले गांधीनगर समाचार समाचार पत्र के संपादक से मिला था, जो विकलांग हैं, मगर, उनकी धाक है, मैंने पूछा, आप कैसे करते हैं, तो उन्होंने कहा, उनके पिता ने कहा था, जिनका एक पक्ष कमजोर होता है, उनको दूसरों के बराबर खड़ा होने के लिए अधिक मेहनत करनी पड़ती है, जो मुझे मेरे अतीत की याद दिला रही थी, जब मैंने उपरोक्त जिम्मेदारियों को एक साथ निभाते हुए अपनी स्थिति बनार्इ। उस दिन अगर गांव वाली बस मिल जाती तो शायद मैं अपनी आगे की पढ़ार्इ को जारी कर लेता, आैर किसी सरकारी नौकरी के लायक हो जाता, मगर, सच कहूं, जो जीवन मैंने गांव वाली बस छोड़कर जिया, वो कठिन तो था, लेकिन रोचकता भरा था, चुनौतियों भरा था, उसने मुझे तराशने में मदद की है। शुक्र गुजार हूं, गुलाब चाचू का भी जिन्होंने, पहली बार कम्प्युटर से यह कहते हुए रूबरू करवाया था कि यह बोलने पर अपने आप लिखता है, लेकिन वो कीबोर्ड का इस्तेमाल कर रहे थे, उस समय वो मेरे लिए चत्मकार था। उसी लिखने वाले कम्प्युटर ने जीवन बदला। मैंने हिन्दी टाइपिंग बिना डेस्क्टॉप एक ख़राब पड़े कीबोर्ड पर सिखी थी। हां, इससे पहले मेरी एक लघु कथा 'आज दी लौड़' हिन्दी अनुवादित 'आज की जरूरत' पंजाबी समाचार पत्र में प्रकाशित हुर्इ, जो मुझे अजीत कार्यालय में मिला था, मैंने उसको उठाया, आैर घर ले आया, मैंने अपने मौसेरे भार्इ हरकृष्ण शर्मा को उसके साथ जुड़ने को कहा, उसमें लिखा था, पत्रकारों की जरूरत, क्योंकि, वे उस समय अपनी पढ़ार्इ कर रहा था, पढ़ार्इ के साथ साथ लेखन भी अच्छी बात हो जाती है आैर अख़बार वाले नरेश जी से हमारी पहचान निकल आर्इ थी, मेरी तो एक लघु कहानी छपी, मगर, हरकृष्ण शर्मा ने उस अख़बार को नर्इ पहचान दी, आैर वहां से निकल पड़े हरकृष्ण शर्मा पत्रकार बनने, जो आज पंजाबी ट्रिब्यून में हैं।

करियर  झलक —
दैनिक जागरण — 27 जुलाई 2002.2003.2004.2005
पंजाब केसरी दिल्ली — 2005.2006 कुछ महीने
ताजे बठिंडा — 2006 2006 कुछ महीने
याहू पंजाबी (वेबदुनिया समूह)  — दिसंबर 2006. 2007. जून 2010.
पंजाब का सच  — 2010 कुछ महीने
दैनिक भास्कर  — 2010 केवल 11 दिन
टरूथ वे  — 2010 कुछ महीने
बिजनस संघर्षशील समय 2011 से 2013 तक
स्वयं का हिन्दी दैनिक प्रभात आभा  — 2013  — दो महीने, समय की दिक्कत के कारण बंद करना पडा, नौकरी प्रस्ताव
जानोदुनिया न्यूज चैनल, मई 2013 पांच महीने
गणेशास्पीक्स अक्टूबर 2013 निरंतर.......

1 टिप्पणी:

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