रविवार, सितंबर 20, 2009

मेरी दस नंबरी टी-शर्ट


मुझे टी-शर्टों से बेहद प्यार था, मुझे टी-शर्ट और जींस पहना शुरू से ही अच्छा लगता है, लेकिन आजकल टी-शर्ट पहना कम हो गया, क्योंकि मेरा पेट बाहर आ गया है। जब मैंने वेबदुनिया को ज्वॉइन किया, तो मुझे पता चला कि वेबदुनिया में ऑफिस ड्रेस रूल हैं, लेकिन मैं बंदा बिंदास। कुछ दिन तो सोचा कि कंपनी बड़ी है, शायद रिर्सोसेज से बढ़कर रूल बड़े हों।

फिर कुछ दिनों बाद मेरी निगाहें कंपनी के एक सीनियर एवं पुराने अधिकारी पर पड़ी, जो नियम के उलट उस दिन टी शर्ट पहनकर आया हुआ था। मैं अपनी सीट से उठा और उससे पूछा क्या। सर रूल केवल नए रिर्सोसेज के लिए हैं, सबके लिए। उन्होंने कहा, नहीं सब के लिए एक ही रूल हैं। मैंने कहा आज शनिवार नहीं, और आप फॉर्मल कपड़े पहनकर नहीं आए। उन्होंने कहा, मैंने तुमको कब कहा, तुम फॉर्मल पहनकर आओ। बस फिर क्या था, मेरा वो ही पुराना राग शुरू हो गया। टी-शर्ट और पेंट। मेरे इस लुक को लेकर कुछ लोग तो मुझे टी शर्ट बॉय कहते भी थे, खासकर निहारिका पांडे, जो आजकल श्रीमति अनिल पांडे हैं।

जब मुझे वेबदुनिया की ओर से शुरूआती तीन दिन का वेतन मिला, तो उसके कैश होती ही। मैंने एक टी शर्त खरीदने की सोची। मैं टी-शर्ट खरीदने के लिए एक बड़े शोरूम के भीतर गया, मैंने एक टी-शर्ट देखी। मुझे वो पसंद आ गई, मेरी सब से बड़ी कमजोरी कोई पसंदीदा चीज लेने के लिए मोल तोल नहीं करता, जब मैंने वो टीशर्ट देखी तो मुझे बहुत पसंद आ गई। बस मैंने बोला इसको पैक कर दो। मुझे लगा कि इसकी कीमत दो ढाई सौ रुपए होगी। मगर जब बिल बनकर तैयार हुआ तो मेरी आंखें खुली की खुली रह गई। बिल पर लिखे थे साढ़े चार सौ रुपए। मैंने चुपचाप टी शर्ट लेकर वहां से निकलने की सोची।


उसके बाद मैंने उसको कम से कम दो साल तक पहना, लेकिन मेरी पत्नी को अब वो अच्छी नहीं लग रही थी, मेरे शरीर के बिगड़े स्टक्चर के कारण। उसने फाड़ दी, और वो पोचा बनकर मेरे घर का फर्श साफ करती है। बेचारी दस नंबरी मेरी टी-शर्ट।


शुक्रवार, सितंबर 18, 2009

श्राद्ध खिलाने के लिए खिलाओ रिश्वत

आज मैंने भी अपनी मां का श्राद्ध पाया, लेकिन खुद ही घर में खाया। सचमुच! यकीन नहीं आता होगा न। मुझे भी यकीन नहीं आ रहा था क्योंकि मां को पूर्वजों की रोटी खिलाते हुए देखा, किसी गरीब घर के बच्चों या परिवारजनों को। आज मेरी पत्नी बोली हम किसी पंडित पंडितायन आदि को खिलाने की बजाय मंदिर बाहर बैठे हुए भूखे नंगे लोगों को श्राद्ध की रोटी खिलाएंगे ताकि मां खुश हो सके। आखिर होममिनिस्टर के आगे हमारी कहां चलती है, वो हड़ताल पर चली या अस्तीफा देकर चली गई तो अपनी तो नैया डुब जाएगी। मैंने कहा ठीक है, उसने पूरी और खीर बनाई। मुझे भरकर एक बर्तन में खीर दे दी। मैं और मेरा तेतेरा भाई खीर पूरी लेकर मंदिर पहुंचे। हम बांटने ही लगे कि वहां बच्चों की फौज लिए बैठी एक महिला बोली, ये नहीं खाएंगे, तुम पैसे दे सकते हो। मैंने बोला, चल किसी और को खिला देते हैं। वहां गया, उस महिला ने खीर पत्तल में डलवा तो ली, लेकिन खीर बाद में वहां पर ऐसे गिर रही थी जैसे गिलास से पानी। फिर मेरी नजर एक बुजुर्ग व्हील चेयर पर बैठे साधुनुमा व्यक्ति पर पड़ी, जब उसको मैंने पूछा बाबाजी पूरी खीर खाओगे। कोई जवाब नहीं आया। इतने में वहां एक और युवक आया और मेरी तरह ही बोला। बाबा ने उत्तर दिया, दक्षण दोगे, वो पहले तो चुप हो गया। फिर दुबकी आवाज में हां बोला। इधर, बाबा ने फटाक से उच्ची आवाज में कहा क्यों नहीं खाएंगे? पहले दक्षण हो जाए। मैं चकित रह गया। फिर मैंने सोचा शायद बाबा पहले किसी सरकारी दफ्तर में था, शायद इस लिए काम के लिए पहले रिश्वत मांग रहा है। अब तो श्राद्ध खिलाने के लिए भी रिश्वत देनी पड़ती है।

रविवार, सितंबर 13, 2009

जब छोड़कर चली गई मां

मुझे आज भी याद है, वो काला दिन, जब मेरी मां ने सरकारी अस्पताल के बिस्तर पर अपनी मां (मेरी नानी) की बांहों में दम तोड़ दिया था। उस दिन मेरी मौसी, मामी, मेरी नानी और मैं, गुलूकोज की बोतल का खत्म होने का इंतजार कर रहे थे, उस पर निर्भर था मेरी का मां जीवन। मेरी मां की तबीयत बहुत नाजुक थी, और डाक्टर ने सुबह उसको देखने के बाद मुझे बोल दिया था, हैप्पी अगर वो इस गुलूकोज की बोतल को पचा गई तो मैं उसको बचालूंगा। सबकी नजरें उस बोतल थी, और मेरी मां भी अब सुबह से बेहतर लग रही थी, उसके सिर के पास बैठी मेरी नानी कह रही थी, देख शिमला (मामी) कृष्णा के चेहरे पर पहले सा ताब नजर आ रहा है। मुझे यकीन है कि कृष्णा आज शाम तंदरुस्त होकर घर पहुंच जाएगी। वहां सब एक दूसरे का मन रख रहे थे, वैसे नानी के कहने अनुसार मेरी मां के चेहरे पर पहले जैसा ताब था, वो पहले से बेहतर होती नजर आ रही थी। और इधर गुलूकोज की बोतल खत्म होने पर ही थी।

उस सुबह की बात ही है, जब मैं ऑफिस के लिए तैयार हो रहा था, तो मेरी मां बोली। हैप्पी मेरी तबीयत खराब हो रही है, तुम मुझे आज सरकारी अस्पताल में दिखाकर आओ, मैंने कहा मां कल तो दवाई लेकर आए हैं, जिससे दवाई लाए थे वो बठिंडा का मशहूर जाना माना डाक्टर है। नहीं, हैप्पी मुझे तुम एक बार सिविल अस्पताल दिखा लाओ। वहां तुम्हारी जान पहचान के डाक्टर हैं, इलाज अच्छे से कर देंगे। मैंने कहा ठीक है। और वो आंखों में आंसू लेकर बोली, आज मुझे अपने घर छोड़ आना, जो हमने शहर में नया बनवाया था, गांव से शहर आने के लिए। मैं आज से वहां ही रहूंगी, तेरे पापा को गांव से आना हो या ना। लेकिन अब मैं गांव वापिस नहीं जाउंगी। मैंने कहा ठीक है।

मैं मां को लेकर अस्पताल पहुंचा, डाक्टर ने जांच करने के बाद कहा, इसको अस्पताल में दाखिल करना पड़ेगा, मैंने कहा ठीक है। अस्पताल में दाखिल होने की बात सुनकर अस्पताल में मेरी नानी, मामी और बुआ सब पहुंच गए, मैं और मौसी तो पहले से वहां पर थे। अब उसको गुलूकोज की बोतल लगाने की बात आई, तो वहां नर्स और अन्य डाक्टर हाजिर हो गए, किसी को मेरी मां के शरीर में नस नहीं मिल रही, वो जगह जगह सूईयां चुभ रहे थे, शायद यहां कोई नस मिल जाए। मैंने कभी मां को टीका लगता नहीं देखा, आज वो मेरे सामने उसके जिस्म में सूइयां चुभो चुभोकर देख रहे थे, जैसे किसी मुर्दे के शरीर में। मेरे मुंह से गाली निकल गई, डाक्टर मेरे जानकार थे, उन्होंने कहा हैप्पी तुम बाहर जाओ। आखिर डाक्टरों को नस मिली, वो भी टखने के उपर। अब मुझे थोड़ा सा सुकून आया।

बोतल आधी खत्म हो चुकी थी, और मेरी मां के चेहरे पर सुधार के संकेत साफ साफ नजर आ रहे थे। उसने कहा हैप्पी तुम परम (छोटी बहन) टैनी (बड़ा भाई) का रखना। उसने कहा मां पानी...मामी मौसी ने झट से नानी को पानी पकड़ा और मुंह में डालने लगी कि मेरी मां को अटैक आया, और दांत जुड़ गए। पानी की एक घुंट भी अंदर न गई। और सब खत्म हो गया। 28 फरवरी 2006 शाम पांच बजे मेरी माँ इस दुनिया को अलविदा बोलकर...और कुछ जिम्मेदारियां मेरे कंधों पर डोलकर चली गई।