बुधवार, जुलाई 21, 2010

पिछले डेढ़ महीना-बिरह का महीना

पिछला डेढ़ महीना, मेरे लिए बिरह का महीना रहा। इस दौरान कितने ही लोग अचानक जिन्दगी से चले गए, कुछ सदा के लिए और कुछ फिर मिलने का वायदा कर। हमारी कंपनी आर्थिक तंगी की चपेट में उस वक्त आई, जब आर्थिक तंगी के शिकार देश वेंटीलेटर स्थिति से मुक्त हो चुके थे, कहूँ तो हमारी किश्तियों ने किनारों पर आकर जवाब दिया। जॉब जाने का कभी अफसोस नहीं हुआ, हां, लेकिन अगर अफसोस हुआ कुछ लोगों से जुदा होने का। जब भी जुदा होने का अफसोस अपनों से करने लगते तो अचानक किसी बुद्धजीवि की बात कहकर उस स्थिति को संभाल लिया जाता, अच्छे लोगों को एक जगह स्थाई नहीं होना चाहिए, पानी की तरह व रमते जोगियों की भांति चलते रहना चाहिए। ऐसी ढेरों बातें, जो जुदाई के गम को कम कर देती थी, एक दूसरे से हम दोस्त बोलते रहते थे। किसी ने कहा है, जमीनी फासले कितने भी क्यों न हों, बस दिलों में दूरियां नहीं होनी चाहिए। ऐसे हालातों में इंदौर छोड़ दिया, इंदौर छोड़ने का गम कम, खुशी ज्यादा थी, क्योंकि अपने शहर लौटना किसे अच्छा नहीं लगता। शाम ढले तो परिंदे भी घरों को लौट आते हैं, मैं तो फिर भी साढे तीन साल बाद अपने वतन लौट रहा था। इस डेढ़ महीने के दौरान मुझे पहला झटका उस दिन लगा, जिस दिन एक मित्र का सुबह सुबह फोन आया कि विशाल का छोटा भाई सड़क हादसे में घायल हो गया। इस सूचना ने मानो, प्राण ही निकाल लिए हों। सबसे पहले जुबां से वो ही शब्द निकले, जो किसी अपने के लिए निकलते हैं, हे भगवान मेरे सांसों से कुछ सांस ले, उसमें डाल दे। इंदौर शहर में अगर कोई दरियादिल इंसान मिला तो विशाल, अपने नाम की तरह विशाल। अगली सुबह दोस्त का फिर फोन आया, विशाल का भाई चल बसा। इतनी बात सुनने के बाद विशाल को फोन करने की हिम्मत नहीं थी, और मैंने किया भी नहीं, क्योंकि जब मैं ही भीतर से संभल नहीं पा रहा था, उसको क्या हिम्मत देता। मैंने अपने दोस्त को कहा कि तुम उसके पास जाओ और हिम्मत देना। किस्मत देखो, जनक को भी शाम की रेल गाड़ी से अपने घर लौटना था, वो भी जॉब छोड़ चुका था। मुझे और जनक को तो दुख इस बात का था कि विशाल का भाई चला गया, लेकिन विशाल की किस्मत देखो, वो इस महीने में मुझे, जनक, नितिन और न जाने कितने दोस्तों को अपने शहर से विदाई दे चुका था। सोमवार को विशाल का मेल मिला कि उसने ऑफिस ज्वॉइन कर लिया, यह मेरे थोड़ा सा राहतपूर्ण मेल था, क्योंकि ऑफिस का काम व दोस्तों का मिलवर्तन उसके दर्द को थोड़ा सा कम कर देंगे। मैंने पंजाब से गुजरात के लिए रवाना होते हुए रेलगाड़ी में उसको फोन किया, उसने बताया कि उसने किताब संन्यासी जिसने अपनी संपत्ति बेच दी को फिर से पढ़ना शुरू कर दिया, मैंने उसको बताया कि मैंने पिछले डेढ़ महीने में अच्छे दोस्तों की कमी न खले के चक्कर में चार किताबें पढ़ डाली, डेल कारनेगी की समुद्र तट पर पिआनो, ऑग मेंडिनो की विश्व का सबसे बड़ा चमत्कार, चौबीस घंटों में बदलें जिन्दगी पयॉलो क्योलो की अल्केमिस्ट, जिससे कुछ लोग कीमियागर के नाम से भी जानते हैं। रेल गाड़ी जैसे ही राजस्थान को क्रोस करते हुए गुजरात में इंटर होने लगी, तो मेरे मोबाइल पर संदेश आने लगे, यह संदेश नेटवर्क बदलने का अलर्ट नहीं थे, यह संदेश एक बेहद बुरी खबर लेकर आए थे। इनमें लिखा था, वेबदुनिया मराठी के पूर्व वरिष्ठ उप संपादक एक सड़क हादसे में चल बसे, पहले पहल तो खबर अविश्वासनीय लगी, लेकिन संदेशों के बाद कुछ मित्रों के फोन आए, जो इस बुरी खबर को सच होने की पुष्टि कर रहे थे। इस घटना में मुझे एक बार फिर से बेचैन कर दिया, आखिर हो क्या रहा है? जिन्दगी ने आखिर हम सबको किस तरह अलग थलग किया है। अभिनय कुलकर्णी, जिसे मैं जल्दबाजी में अभय कुलकर्णी कह जाता था, मेरी अंतिम मुलाकात तब हुई, जब मैं बेवदुनिया छोड़ने का फैसला कर चुका था, एक कांफ्रेंस रूम में। फैसला करने के बाद जैसे ही मैं वेबदुनिया के ऑफिस में पहुंचा तो सब मेरी प्रतिक्रिया जाने के लिए तैयार थे, आखिर क्या हुआ? क्यों कि इस बिरह के मौसम की शुरूआत मुझसे होने वाली थी। मैंने जैसे ही बताया कि मैं वेबदुनिया छोड़ने वाला हूँ, तो बात पूरे ऑफिस में जंगल की आग की तरह फैल गई। मेरे बाद शायद अभिनय कुलकर्णी को भी बुलाया जाना था, वो मेरा फैसला सुनने के बाद काफी बेचैन हो गए, होते भी क्यों न, आखिर पूरा परिवार जो इंदौर में बसा चुके थे, और कंपनी के प्रति खुद को पूरी तरह समर्पित कर चुके थे, कई अच्छे मौके उन्होंने अच्छे वक्त भी ठुकरा दिए थे, लेकिन अब स्थिति ऐसी थी कि अब उन मौकों को आगे से जाकर मांगना था, जिनको ठुकरा चुके थे वो कई दफा। उसके दिन के बाद, मेरी और उनकी कोई बात नहीं हुई, लेकिन कल जैसे ही मुझे पता चला कि वो इस तरह दुनिया से चले गए, पांव तले से जमीन निकल गई। यह बेहद बुरी खबर थी मेरे लिए अब तक की, क्योंकि वेबदुनिया के क्षेत्रीय भाषा के जितने भी पोर्टल थे, उन पोर्टलों में सबसे बढ़िया वरिष्ठ उप संपादक थे, जिन्होंने लम्बे समय तक बिना किसी विवाद के अपना कार्यकाल खत्म किया, लेकिन वो इस तरह दुनिया से ही रुखस्त हो जाएंगे किसी ने नहीं सोचा था। भगवान उनकी आत्मा को शांति दे।


मंगलवार, जून 01, 2010

पितृ पर्वत - मेरे लिए स्वर्ग सा

इंदौर में मेरी सबसे पसंदीदा जगह है पितृ पर्वत। जहाँ पहुंचते ही मैं तनाव मुक्त हो जाता हूँ, शायद इसलिए कि वहाँ बुजुर्गों का बसेरा है, और मुझे बुजुर्गों के साथ समय बिताना ब्लॉगिंग करने से भी ज्यादा प्यारा लगता है, लेकिन शर्त है कि बुजुर्ग सोच से युवा होने चाहिए। यहाँ पर बुजुर्गों की याद में पेड़ पौधे लगाए जाते हैं, लेकिन यह पूरी तरह से नहीं कह सकता कि अपने बुजुर्गों की याद में लगाए इन पेड़ पौधों को कोई बाद में देखने आता भी है कि नहीं। चलो छोड़ो, वैसे भी हम खानापूर्ति में कुछ ज्यादा ही विश्वास करते हैं, इतना ही काफी है कि बुजुर्गों की याद में पेड़ पौधे तो लगते हैं। हो सकता है कि कभी कोई पोता या पोती अपने प्रेमी के साथ यहाँ घूमने आए, और उस पेड़ के तले बैठकर सुकून के पल गुजारे, जिसे बहुत पहले उनके परिजनों ने उनके पूर्वजों की याद में रोपा था। लेकिन मेरी हैरत की तब कोई हद नहीं रहती, जब कोई इंदौर में सालों से रह रहा व्यक्ति कहता है, वहाँ तो केवल पेड़ पौधे ही लगाए जाते हैं, वहाँ घूमे जैसी तो कोई चीज ही नहीं। वो चीज कहते हैं, जिसको मैं स्वर्ग कहता हूँ। रविवार शाम को अपने कुछ जान पहचान के लोगों के साथ पितृ पर्वत की सैर करने निकला, वो सब सालों से इंदौर में रह रहे हैं, लेकिन इस स्वर्ग से रूबरू कभी नहीं हुए, लेकिन रविवार जैसे ही उन्होंने यहाँ का नजारा देखा तो देखते ही रह गए। एक घंटे में लौटकर आने की सोचकर गए, करीब साढ़े तीन घंटों बाद घर की तरफ लौटे। वहाँ पहुंचकर जो आनंद मुझे मिलता है, वो मैं ही जानता हूँ, क्योंकि दुनिया में आनंद एवं सत्य को जानने के लिए खुद जाना पड़ता है, वरना दोनों सदैव अधूरे रहते हैं। इसके बाद पता नहीं, अब कब मौका मिलेगा, इन बुजुर्गों से मिलने का, जो पेड़ पौधों के रूप में खड़े मेरे इस स्वर्ग की शोभा को चार चाँद लगाते हैं, क्योंकि अब इस परिंदे का इंदौर से दाना पानी खत्म हो चुका है, और अपने घर की तरफ कूच कर रहा है। दिन प्रति दिन फैलते इंदौर को देखकर सोचता हूँ कि जब अगली बार इंदौर आऊंगा, अपने कुछ मित्रों से मिलने क्या इंदौर के बाहर बाहर स्थित इस स्वर्ग के दर्शन हो पाएंगे? क्यों यहाँ के भूमाफिया ऐसे हैं कि गार्डन तक बेचते हैं, और सरकारी अधिकारियों को भनक तक नहीं लगती।

शनिवार, मई 29, 2010

अलविदा दोस्तो, जिन्दगी रही तो हजार मुलाकातें

हैप्पी तेरा फोन, पास बैठे मेरे मित्र यशपाल शर्मा ने फोन को मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा। मैंने फोन को थामते हुए..हैल्लो हैल्लो किया, सामने से संदीप सर की आवाज आई, "हैप्पी तुमको आज दो बजे जयदीप सर ने रॉल्टा बजाज वाली बिल्डिंग में बुलाया है। मैं सीट से उठा, और पारूल को कहा, चलो जल्दी खाना खाकर आते हैं, क्योंकि मुझे रॉल्टा बजाज वाले दफ्तर जाना है, वहाँ जयदीप सर ने बुलाया है। हम घर आए, बहन खाना बनाने में लगी हुई थी, जल्दी जल्दी लाँच किया। पारूल ने मुझे कुछ ट्रिक दिए, जो मेरे लिए किसी काम के नहीं थे, क्योंकि मैं मौके और स्थिति को देखकर बात करने में यकीन रखता हूँ, मैंने उसको कहा, वहाँ कोई भी बात हो, तुम मुझसे शाम तक नहीं पूछोगी, क्योंकि आज तेरा जन्मदिन है, और मैं चाहता हूँ, तेरा आज का दिन अच्छा निकल जाए। फिर ऐसे ही अचानक मेरे मुँह से निकल गया, आज सर बुलाएंगे, और कहेंगे हैप्पी तुम कल से काम पर मत आना और अपने त्याग पत्र पर साईन कर दो। वो बोली फिर तो मजा आ जाएगा। मैंने जल्दी जल्दी उसको ऑफिस छोड़ और खुद रॉल्टा बजाज बिल्डिंग की तरफ निकल गया। वहाँ पहुंचा तो वेटिंग करने के लिए कहा गया। वो ही सोफा था, वो ही स्वागत रूम, जब मैं आज से करीब साढ़े तीन साल पहले 27 दिसम्बर 2006 को वेबदुनिया में इंटरव्यू देने आया था, इंटरव्यू कैसा, पता ही था, नतीजा सकारात्मक जाएगा, हो सकता है पैसों को लेकर मामला अटक जाए, लेकिन मुझे पैसे से मोह कम है, वहाँ भी बात न अटकने वाली थी। उस इंटरव्यू में पास हुआ, तभी तो आज साढ़े तीन साल बाद फिर उसी स्गावत कक्ष में उसी सोफे पर बैठा इंतजार कर रहा था, कब सर बुलाएंगे? और बताएंगे इस बार कितनी कितनी सैलरी बड़ी है, वो बात भूल गया जो पत्नि को मजाक मजाक में कहकर निकला था। दो कप चाय पीने और काफी चेहरों को नहारते नहारते अब उबने लगा था कि इतने में अंदर जाने का फरमान आ गया। अंदर गया, वहाँ पर सर के अलावा कंपनी के अन्य उच्च अधिकारी भी उपस्थित थे। मुझे कुछ बातें सुनने के बाद साफ हो गया था कि बेटा जो बात पत्नि को बोलकर आया है, वो बात उस समय भले ही मजाक रही हो, लेकिन अब वो सत्य के इतने करीब थी कि मौन के समय जितने लब एक दूसरे के करीब होते हैं। कंपनी पदाधिकारियों ने मेरे सामने दो विकल्प रख दिए, एक त्याग पत्र और दूसरा विभाग बदलने का, तो मैंने त्याग पत्र वाला विकल्प मैंने झट से स्वीकार कर लिया। मुझे कोई अफसोस न हो रहा था, क्योंकि मेरे जेहन में गुरू हरिदत्त जोशी के संवाद बनिए की दुकान है, कब लात मारकर भगा दें, पता नहीं, रितेश श्रीवास्तव के संवाद, लाले की नौकरी है बाबू और रणधीर सिंह गिलपत्ती के संवाद मजदूरी करते हैं घूम रहे थे। जब मैं दैनिक जागरण बठिंडा में था, तो उक्त संवाद मेरे कानों में पड़ते ही रहते थे। इन संवादों ने मुझे तब तब बहुत शक्ति थी, जब जब मैंने नौकरियाँ त्यागी। मेरा मानना है कि जब एक दरवाजा बंद होता है तो कई और दरवाजे तुम्हारे लिए खुल चुके होते हैं। इस बात को सत्य होते हुए मैंने कई दफा देखा, और इस बार भी देख रहा हूँ, दोस्तो। मुझे तो इंतजार था, इस दिन का, और मैं वतन वापसी के लिए तो बहुत समय से उतावला था, लेकिन कहते हैं वक्त से पहले और तकदीर से ज्यादा किसी को कुछ नहीं मिलता। मुझे बहुत कुछ मिला है, जिसके लिए मेरी जिन्दगी में आने वाले हर शख्स का मैं ऋणि हूँ। इस संस्थान से भी मुझे बहुत कुछ मिला है, अगर यहाँ तक न आता तो शायद कभी ब्लॉगिंग की दुनिया में कदम न रख पाता। शायद इतना कुछ लिखने का साहस भी न कर पाता। मुझे इस संस्थान की बदौलत एक से एक बढ़कर इंसान मिले, जिनसे मुझे कुछ न कुछ सिखने को मिला, प्यार स्नेह तो अलग से। आज मुझे इस संस्थान से कोई गिला नहीं, और नाहीं होगा। शुरू शुरू में जरूर था, लेकिन तब न-समझ था, सुविधाएं ढूँढने के चक्कर में कंपनी को कोसता था, लेकिन जब समझ में आया कि सुविधाओं से तो कोई भी बेहतर कर लेता है, मजा तो तब है प्यारे, अगर आप असुविधाओं में रहकर कुछ बेहतर कर पाओ।अलविदा दोस्तो..जिन्दगी रही तो हजार मुलाकातें..नहीं तो, कहीं नहीं गई यादें और बातें।

शुक्रवार, मई 07, 2010

लिखने कुछ और बैठा था...लिख बैठा माँ के बारे में।

गाँव के कच्चे रास्तों से निकलकर शहर की चमचमाती सड़कों पर आ पहुंचा हूँ। इस दौरान काफी कुछ छूटा है, लेकिन एक लत नहीं छूटी, फकीरों की तरह अपनी ही मस्ती में गाने की, हाँ स्टेज से मुझे डर लगता है। गाँवों की गलियाँ, खेतों की मिट्टी, खेतों को गाँवों से जोड़ते कच्चे रास्ते आज भी मुझे मेरी इस आदत से पहचान लेंगे, भले ही यहाँ तक आते आते मेरे रूप रंग, नैन नक्श में काफी बदलाव आ गए हैं। जब गाँव से निकला था, बड़ी मुश्किल से 18 साल का हूँगा। माँ ने रोका था, मत जा शहर अभी तुम बहुत छोटे हो। अभी तुम हमारे साथ यहाँ रहो। शहर में बहुत भीड़ भाड़ है। तुमको अंधेरे से डर लगता है। अभी तुम पढ़ाई करो। नौकरी नाकरी बाद में कर लेना, लेकिन गाँव में रहने के लिए कुछ न था, किसके भरोसे रहता। वो माँ भी जानती थी, लेकिन माँ तो आखिर माँ होती है। वो कैसे अपने जिगर के टुकड़े को कुछ कागज के टुकड़ों के लिए आँखों से ओझल कर दे। गाँव छोड़ने के बाद मेरी स्थिति शादी कर चली गई लड़की जैसी हो गई, जो ससुराल में इतनी व्यस्त हो गई कि मायके में बस कभी कभार कुछ पलों के लिए ही आना होता है। माँ की दवाई लेकर जाना, गाँव जाने का एक मात्र बहाना हो गया था, इसके अलावा कुछ नहीं। बस माँ के दर्शन किए, दवाई थमाई, और हालचाल पूछा नहीं कि बस ने गाँव के दूसरे बस स्टेंड से हॉर्न बजा दिया, जैसे कह रही हो प्लीज हरी! अप। जो माँ मेरे लिए बनाती वो घर में बहन के लिए ही छूट जाता, वो बीमार थी, लेकिन बेटे के आने की बात सुनते ही तंदरुस्त हो उठी, पता नहीं क्या ऊर्जा थी बेटे के आने की खबर में, और मैं भागती जिन्दगी में सोच ही नहीं पाया कि जिन्दगी हमारी मुट्ठी में भरी रेत की तरह कण कण होकर फिसल रही है। जिन्दगी एक सफर है, इसको कहीं न कहीं तो खत्म होना है, शायद किसी का पहले और किसी का बाद में। माँ बीमार थी, लेकिन फिर भी जब मैं शहर से फोन लगाता तो माँ सबसे पहले मेरा हाल पूछती, जबकि हाल तो मुझे पूछना होता था उसका। उस समय मेरे घर में एक भी फोन नहीं थी, लेकिन आज वो नहीं तो घर में तीन तीन फोन हैं, घर का अलग, भाई का अलग और पिता का। वो दंग रह जाती जब मैं उसको बताता कि मैं ऑफिस में से बहुत देर रात निकलता हूँ घर के लिए, क्योंकि वो जानती थी मैं अंधेरे से बहुत डरता था, इतना कि पेशाब करने के लिए भी रात को रोशनी से परे एक कदम भी नहीं उठाता था। फिर पूछती खाना पीना तो अच्छा है, हाँ तेरी मौसी बता रही थी कि तुम दिन में एक बार खाना खाने लग गए हो, तो मैं कहता नहीं नहीं बाज़ार से कुछ खा लेता हूँ। कैसे कहता कि माँ मुझे रोटियाँ अच्छी नहीं लगती। गाँव में दिन की 27 रोटियाँ तोड़ने वाला शहर की भाग दौड़ में सिर्फ पाँच छ: रोटियों पर आ गया है। उसको कैसे बताऊं कि शहर आकर जाना है मैंने रोटियाँ गिनकर बनाई जाती हैं, तेरी तरह नहीं कि रोटियों से छाबा (रोटियाँ रखने वाला स्तूत की लड़की से बना डिब्बा) भरकर रख दो, जब चाहे मेरे बच्चों का मन करे खा लें। बेटे से दूर गाँव में रहना अब मुश्किल हो रहा था, शायद इसलिए एक दिन उसने फैसला किया कि अब वो शहर रहेगी, शहर की फिजाओं को माँ का फैसला ठीक न लगा, और जिस सुबह माँ ने फैसला लिया, उसी दिन की शाम वो सदा के लिए अलविदा कहकर चली गई। जाना तो सब को है, लेकिन अच्छे लोगों के साथ समय कुछ ज्यादा ही गुजारने को मन करता है। माँ के जाने के बाद सब शहर आ गए, लेकिन मैं कमबख्त फिर शहर छोड़ आया, मुझे याद है, एक बार एक पंडित ने कहा था, इस लड़के के नसीब में घर में रहना लिखा ही नहीं। पंडित की बात बेघर होना, उस घर तक ही सीमित थी, या मेरे नए बसे घर पर भी लागू होती है मुझे नहीं पता, जिसमें मैं, मेरी बिटिया और उसकी माँ रहते हैं।

शुक्रवार, अप्रैल 09, 2010

उस दिन का पागलपन

दो बजने में कुछ मिनट बाकी थे, और स्कूल की छुट्टी वाली घंटी बजने वाली थी, लेकिन हम दूसरे गाँव से पढ़ने आते थे, इसलिए हमारे लिए स्कूल की घंटी बजने से ज्यादा महत्वपूर्ण था बस का हॉर्न। उस दिन जैसे ही बस ने गाँव के दूसरे बस स्टॉप से हॉर्न दिया, तो हमारे गाँव के सब लड़के स्कूल के मुख्य दरवाजे की तरफ दौड़ने लगे। मेरे गाँव के सब लड़के स्कूल की दीवार के उस पार खड़े मुझे आवाज दे रहे थे, ओए पंडता (पंडित) जल्दी आ, बस आने वाली है, लेकिन मैं और मेजर फँसे खड़े सौ के करीब लड़कों की भीड़ में। पंगा पड़ा हुआ था, एक लड़की को लेकर, जो इस स्कूल में पढ़ने के लिए आई थी, दूसरे किसी शहर से, लेकिन उसके शहरीपन ने स्कूल का माहौल बिगाड़ दिया, अब हर कोई प्यार इश्क की बातें करने लगा, लड़कियाँ लड़कों से फ्रेंडशिप करने के बारे में सोचने लगी। बस गलती इतनी सी थी मेजर की, वो दोस्त के कहने में आ गया और सोचने लगा वो लड़की उस पर मरती है, जबकि ऐसा कुछ नहीं था, क्योंकि मैं उससे स्पष्ट शब्दों में पूछ चुका था। सुंदर लड़की पर कौन नहीं मरना चाहेगा, पूरा स्कूल उसकी तरफ देखता था, मैं नहीं मेरी निगाहें कहीं और थी।

अब जैसे स्कूल में पता चला कि मेजर उस लड़की पर लाईन लगाता है, तो उस गाँव के सब लड़के सख्ते में आ गए। और उन्होंने मेजर को स्कूल में पीटने का प्लान बना लिया। मेरे सब दोस्तों को पहले पता चल गया था, वो सब के सब तो स्कूल के पिछले रास्ते से निकल बस स्टॉप पर पहुंचकर मुझे आवाज दे रहे थे, लेकिन मैं मेजर को स्कूल के बरामदों से बस स्टॉप की तरफ खींचकर ले जा रहा था, वो लड़कों की भीड़ देखकर घबरा रहा था, पैर पीछे खींच रहा था, लेकिन मेरा मन उसको अकेले छोड़ भाग जाने को नहीं करा, मैंने कहा मैं भी तो तेरे साथ चल रहा हूँ, तू क्यों डर रहा है, तुझे रोज इस स्कूल में आना है, अगर तू डरेगा तो ये लोग तुम्हें घर में घूसकर मारेंगे, तू डर मत मेरी बाजू पकड़, मैं देखता हूँ कौन रोकता है रास्ता।

सौ के करीब लड़कों की भीड़ मुख्य द्वार और बरामदे के बीच वाले रास्ते पर खड़ी थी, जैसे ही हमने कदम बरामदे से बाहर निकाले, वो सबके सब मारने के लिए अपने हाथ को तनने लगे, वो किसी भी समय हम पर हमला कर सकते थे, लेकिन मैं निरंतर उसको लेकर आगे बढ़ा, अब हम दोनों को लड़कों ने चारों ओर से घेर लिया था। एक लड़के ने मुट्ठी बंद कर जैसे ही मेरे गुप्तअंग की तरह प्रहार करने की कोशिश की, तो एक पीछे से आई आवाज ने उसकी मुट्ठी को वहाँ ही रोक दिया। "पंडतां दा मुंडा ए, देखके मारी" (पंडितों का लड़का है, देखकर मारना)। इस पंक्ति ने सबको पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया, और मैं निरंतर उसको लेकर आगे बढ़ता गया, और हम स्कूल के द्वार के बाहर निकल गए, कुछ देर में उधर से बस भी आ गई, हम दौड़कर बस की छत्त पर चढ़ गए। मेरे दोस्तों ने कहा, ओए पंडता तू बच गया, आज तेरे साथ बहुत बुरा होता, तुम्हें सन्नी देओल बनने की क्या जरूरत थी। इतना सुनते ही जब मैं उस दृश्य को ख्याल में देखा तो सच मानो, मेरे पैरों तले जमीं निकल गई, अगर कुछ हो जाता तो?

शुक्रवार, मार्च 26, 2010

मुझे माफ कर देना, नालायक बच्चा समझकर

पिछले कई दिनों से उलझन में था, करूं या न करूं। दिल कहता था करूं और दिमाग कहता था छोड़ यार। वैसी ही स्थिति बनी हुई थी, जैसे प्रेमी को पहला पत्र लिखने के वक्त बनती है, कई कागद काले कर दिए, फिर फाड़कर फेंक दिए, ऐसे ही कई नाम लिखे और मिटा दिए, लेकिन कल रात एक मित्र की मदद करते हुए मैंने जो नाम ब्लॉग के लिए सोचा था,

शुक्रवार, मार्च 19, 2010

स्लैमबुक और उसकी मानसिकता

कुछ दिन पहले बठिंडा से मेरे घर अतिथि आए थे, वो मेरे खास अपने ही थे, लेकिन अतिथि इसलिए क्योंकि वो मुझे पहले सूचना दिए बगैर आए थे, और कमबख्त इस शहर में कौएं भी नहीं, जो अतिथि के आने का संदेश मुंढेर पर आकर सुना जाएं। वो आए भी, उस वक्त जब मैं बिस्तर में था, अगर खाना बना रहा होता तो शायद प्रांत (आटा गूँदने का बर्तन) में से आटा तिड़क कर बाहर गिर जाता तो पता चल जाता कोई आने को है।

शुक्रवार, फ़रवरी 19, 2010

जब हुआ नाड़ी निरीक्षण

त 17 फरवरी से योग शिविर जा रहा हूँ, एक दोस्त के निवेदन पर, ताकि दोस्ती भी रह जाए और सेहत में भी सुधार हो जाए। योग शिविर में जाकर बहुत मजा आ रहा है, क्योंकि वहाँ पर बच्चा बनने की आजादी है, जोर जोर से हँसने की आजादी है, वहाँ पर बंदर उछल कूद करने की आजादी है। सुना तो बहुत बार है कि मानव रूपी पुतला पाँच तत्व से बना है,

सोमवार, फ़रवरी 15, 2010

जो हूँ वैसा रहना

मैं कल से क्यों नहीं डरता? मैं कल के बारे में क्यों नहीं सोचता? मेरी पत्नि अक्सर मुझ पर चिल्लाती है| चिल्लाए भी क्यों न वो, कल से जो डरती है, जिसके चक्कर में वो आज भी खो बैठती है। मुझे नहीं पता चला कब और कैसे मुझे आज से नहीं अब से प्यार हो गया। जो हूँ वैसा रहना मुझे पसंद है, चाहे सामने वाले को कितना ही बुरा क्यों न लगे। मुझे पल पल रूप बदलना नहीं आता। मैंने कहीं सुनना था या पढ़ा था सच और तलवार का घाव जल्द ठीक हो जाता है। उसके बाद झूठ का पल्लू पकड़ना बंद कर दिया, जबकि दुनियादारी झूठ के बगैर चलती नहीं।

शनिवार, फ़रवरी 06, 2010

मेरे घर आई नन्ही परी

छ: फरवरी 2010 को सुबह सात बजकर 58 मिनट पर हिम्मतनगर (गुजरात) स्थित अस्पताल वरदान में इस नन्ही परी का जन्म हुआ। एक झलक खुली खिड़की के पाठकों और मेरे दोस्त जनों के लिए।

शुक्रवार, फ़रवरी 05, 2010

कीचड़ में खेलता वो मासूम सा बच्चा

एक फूल सा बच्चा, गली में खड़े पानी के कारण हुए कीचड़ के बीचोबीच मस्ती कर रहा है। उसको कितना आनंद महसूस हो रहा था, उसका तो अंदाजा नहीं लगा पाऊंगा। हाँ, लेकिन उसके चेहरे की खुशी मेरे दिल को अद्भुत सुकून दे रही थी।

मंगलवार, जनवरी 19, 2010

जब मुश्किल आई, माँ की दुआ ने बचा लिया

मेरी आदत है कि कहीं से कोई भी सामान खरीदने से पहले अपना पर्स जरूर चैक करता हूँ, क्योंकि मेरी जेब में पैसे बच जाए, मानो बिल्ली के पास दूध। हाँ, जब कभी ऐसा करने में चूक जाऊं या फिर मुश्किल में फँस जाऊं तो माँ की दुआ ही बचाती है। सच में माँ की दुआओं में बहुत शक्ति होती है। मैंने तो उस शक्ति को हर पल महसूस किया है। बात है कल दोपहर की, जब मैंने दफतर की कैंटीन से हर रोज की तरह खाना मंगवाया। खाना आ गया, और खा भी लिया बड़े शौक से, लेकिन अब पैसे देने की बारी आई तो पर्स में से केवल पाँच पाँच के दो मरियल से नोट निकले, और बाकी सब नोट बड़े। अब कैंटीन वाले को देने थे 15 रुपए, मेरे पास खुले केवल दस रुपए। मैंने कैंटीन मालक से दस रुपए देते हुए कहा कि बाकी के पाँच रुपए शाम तक भेजवाता हूँ, वो जानता था कि पैसे आ जाएंगे, कहीं नहीं जाएंगे। अब वहां से उसका अहसान लेकर ऑफिस में आ गया। फिर शुरू हो गई कीबोर्ड की धुनाई, जैसे धोबी कपड़ों की और लुहार लोहे की धुनाई करता है। उंगलियों ने चलना धीमा कर दिया, मतलब कहने लगी हों कि अब बस थोड़ा सा आराम ले लेने दो। मैंने उंगलियों की थकावट को दूर दौड़ाने के लिए, उनसे कसरत करवाई। इतने में मेरा हाथ मेरी छाती पर आ गया। और उसने कुर्ते की ऊपर वाली जेब में एक कागज के होने का अहसास महसूस किया, मेरे दिमाग के हुकम पर उंगलियाँ मेरी जेब के भीतर घुस गई, वहां से एक कागज निकला, लेकिन ये कागज नहीं था, बल्कि दस का नोट था। जो धुलाई के बाद गुचपुच हो गया था। उस नोट को देखते ही माँ याद आ गई। माँ की दुआ याद आ गई। मैं कभी नहीं भूला कि एक दफा माँ ने कहा था कि तुम पैसे रख रख भूलोगे। सच में ऐसा मेरे साथ कई दफा हुआ, मैं कपड़ों में पैसे रखकर भूल गया, और बुरे वक्त पर वो ही पैसे मेरे काम आए, सच कहूँ तो डूबते को तिनके का सहारा मिल जाता है। जैसे किसी खिलौने को देखकर बचपन की याद ताजा हो जाती है, वैसे ही माँ की कही कोई बात सामने आते ही, माँ के दर्शन हो जाते हैं। वो कई साल पहले इस दुनिया से तो विदा हो गई, लेकिन अपने बेटे के साथ वो कदम दर कदम आज भी चलती है। वो माँ की गोद ही है, जहाँ जाकर हर डर गायब हो जाता है। सच कहूँ।

मुझे जब कभी डर लगा,
मैंने माँ की गोद में सर रख लिया।
डर छूमंत्र हुआ पल में
जब माँ ने सर पर हाथ रख दिया।।

रविवार, जनवरी 10, 2010

जब प्यार हुआ मुझे

यही दिन थे (मई-जून), वेबदुनिया में आए अभी छ: महीने हुए थे। घर से कभी बाहर नहीं निकला था, इसलिए इन दिनों मैंने वेबदुनिया छोड़ने का मन बना लिया था, लेकिन कहते हैं ना कि समय से पहले और किस्मत से ज्यादा किसकी को कुछ नहीं मिलता, ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ, मुझे भी मेरे शहर वापिस जाना नहीं मिला, और इंदौर का होकर रह गया, पता नहीं कितने समय के लिए। हां, अगर उस वक्त मेरे प्रोजेक्ट लीडर मुझे न रोकते तो शायद में आज आपके सामने यह बातें पेश न कर पाता। मुझे पैसे ने नहीं बल्कि उनके स्नेह ने रुकने के लिए मजबूर किया।


मैं आम दिनों की तरह अगले दिन ऑफिस में आया, और उसी पुराने अंदाज में सबको नमस्ते, सत श्री अकाल, नमस्कार और गुड मार्निंग कहा, मुझे नहीं मालूम था कि मेरा यह स्टाइल किसका दिल चुरा लेगा, वेबदुनिया ने उन दिनों कई भाषाओं में पोर्टल शुरू किए थे, जिसके चलते नए नए चेहरों की भर्ती हो रही थी, इनमें एक चेहरा था, जो मेरे राज्य से न था, जो मेरी मां बोली को नहीं बोल सकता था, और नाहीं मैं उसकी भाषा और उसके राज्य से पराचित था। पर कहते हैं प्यार की कोई भाषा नहीं होती, जब दिल मिलते हैं तो सब फासले खत्म हो जाते हैं।

मेरी उसके साथ बहुत ज्यादा बातचीत नहीं होती थी, केवल नमस्ते और गुडमार्निंग बुलाने के सिवाय, हां कभी कभी जब वो ज्यादा काम में व्यस्त होती थी तो मैं इतना जरूर कहता था, क्या हुआ गुजारतन आज ज्यादा ही व्यस्त हो, इसके अलावा शायद हमारी एक ढाबे पर काफी लम्बी बातचीत हुई थी, तब दोनों की बीच में ऐसा कुछ नही था। बस रिश्ता था तो एक साथ कंपनी में काम करते हैं। मैं उन दिनों प्यार करने से कतराता था, क्योंकि घर में बापू की लठ से डर लगता था, क्योंकि वह अक्सर कहते थे, हैप्पी तू अपनी मर्जी से दुल्हन लेकर आएगा, और मेरी तेरी उस दिन लठ से पिटाई करूंगा, वो मुझे बहुत स्नेह करते थे, मैं भी उनसे। मगर मैं कहता था, जिस लड़की को मेरी मां चुनेगी, वो ही मेरी दुल्हन होगी, क्योंकि मैं अपनी मां से बेहद प्यार करता था और करता हूं।

मेरी बातों का किला उस समय ढह गया, जब मैं एक रात आफिस से काम कर रात के बारह बजे घर की तरफ अपनी मस्ती में गीत गाते हुए अकेला जा रहा था, ऐसे में अचानक मेरे मोबाइल पर एक अनजाने से नम्बर से एक मैसेज आया, मैंने दिमाग की सारी जासूसी इंद्रियां दौड़ाई, मगर मुझे याद नहीं आया कि यह नम्बर किसका है, मैंने मैसेज रिटर्न कर पूछा 'हू', तो आगे से जवाब आया लड़की, मुझे लगा कोई मेरा दोस्त मुझे बना रहा है, उसके रोमांटिक मैसेज लगातार आते रहे है, मैंने उसको कहा, अब मुझे सोने दो, सब मैसेज भेजना, क्योंकि मैं ठहरा आफिस प्रेमी और अगले दिन जल्दी आफिस आना था। उसने मेरी बात मान ली।

मगर अगले दिन फिर उसके हैरत में डालने वाले मैसेज आए, और मैं तंग परेशान हो रहा था, सब की मुसीबतें हल करने के लिए आगे रहने वाला हैप्पी आज खुद मुसीबत में था, इतने में मैंने वो मैसेज अपने एक अन्य दोस्त को दिखाया तो उसकी अकल के घोड़े दौड़े, उसने फटाक से कहा कि यह तो किसी गुजराती ने भेजा है, वो लड़की अब भी मेरे जेहन में न थी, मैं अब भी अपने गुजराती दोस्त परुण पर शक कर रहा था, लेकिन दिन गुजारते जैसे ही रात हुई तो तंग करने वाले का पर्दाफाश हुआ, मैंने फोन लगाया, तो आवाज मेरी पहचान में आ गई, हंसते हंसते मैंने उससे पूछा, तुम क्यों मुझे तंग कर रही हो, क्या चाहती हो? तो आगे से जवाब हंसते हंसते आया कुछ नहीं, बस दोनों ने काफी समय तक बात की और वो लड़की मेरे प्यार के मक्कड़जाल में फंस गई, प्यार हुआ और कुछ महीनों के बाद शादी हुई, हमने घरवालों को बिना बताए दोस्तों की मदद से शादी कर ली, जब इस बात का खुलासा हुआ तो दोनों घरों में खलबली मच गई, इसके बाद हमारी प्रेम कहानी में ट्विस्ट आ गया, उसके बाद जो हुआ आपको फिर कभी बताऊंगा, जब मैं जोश में लिखने के मूड मैं हुआ।। तब तक के लिए मुझे इजाजत दें।।

रविवार, जनवरी 03, 2010

इम्तिहानों के दिन और फिल्म चस्का

बचपन गुजर चुका था, और हम किशोर अवस्था से युवास्था की तरफ दिन प्रति दिन कदम बढाते जा रहे थे। ये उन्हीं दिनों की बात है। हम सब दोस्त एक कमरे में बैठकर इम्तिहानों के दिनों में पढ़ाई करते थे। पढ़ाई तो बहाना होती थी सच पूछो तो मौज मस्ती करते थे। कभी दलजिंदर के चौबारे में तो कभी कलविंदर की बैठक में...रोज रात को पढ़ाई के बहाने महफिल जमती थी। वो जट्ट सिख परिवार से संबंध थे और उन सब के बीच मैं एक पंडितों के परिवार से होता था। हम हैं पंडित, लेकिन रहनी सहनी (जीवनशैली) बिल्कुल जट्टों जैसी है। जट्ट परिवार से संबंधित जितने भी दोस्त थे, वो पढ़ने लिखने में तो बिल्कुल नालायक.. उनके मन में एक बात घर कर चुकी थी कि जट्ट पुत्र तो खेतों के लिए बने हुए और उनको डिप्टी कमिश्नर तहसीलदार तो बनना नहीं। मेरा परिवार गरीब था, इसलिए मुझे किसी न किसी तरह पढ़ाई पूरी कर नौकरी हासिल करनी थी। इसलिए उन सब में सबसे ज्यादा नम्बर लाने वाला मैं ही होता था, वो सब के सब नक्लची।