शुक्रवार, अगस्त 28, 2009

जब मिल बैठे तीन यार, मैं, मुकेश और गीत

गुरूवार का दिन और मैं पूरी तरह मुकेशमयी हो चुका था। सुबह सुबह तो मैंने श्री मुकेश को श्रद्धांजलि देते हुए पोस्ट लिखी। और उसके बाद मैंने इंटरनेट पर उसके गीतों को सर्च किया..और फिर डाउनलोड किया। फिर मुकेश के गीत सुनता गया और उसमें रमता गया। इन गीतों को जितनी शिद्दत के साथ लिखा गया है, उतनी ही शिद्दत से मुकेश ने इन गीतों को गाया..तभी तो सुनते ही कानों को आराम सा मिल जाता है। मैंने मुकेश के इन गीतों को कई दफा सुना और इनको अपने चुनिन्दा गीतों में शामिल भी किया हुआ है, लेकिन तब मैं नहीं जानता था कि इन गीतों को आवाज देने वाला मुकेश दा...कहते हैं कि जब तब आपके भीतर जिज्ञासा नहीं होती, तब तक आप अपने पास पड़े कोहिनूर को भी चमकीला कांच ही समझते रहते हैं। मेरे भीतर आज तक कभी ऐसी जिज्ञासा पैदा ही नहीं हुई थी कि पार्श्व गायकों के बारे में जानूं या फिर ये गीत किसने गाया इस बात पर ध्यान दूं। बस गीत अच्छा है, सुनो और लुत्फ उठाओ। बेशक विविध भारतीय वाले अपने गीतों के साथ साथ उनके गायक और गीतकार का नाम निरंतर बताते रहते हैं। हिन्दी हिंदुस्तान में कितने ही एफएम आ जाएं, लेकिन विविध भारती वो स्थान है, जहां दिल को चैन-ए-आराम मिलता है। जिस पर बजने वाले गीतों को सुनने के बाद कान ये नहीं कहते कि कानों से उतार फेंक दो एयरफोन...मन करता है कि विविध भारतीय को निरंतर सुनते रहो..विविध भारतीय आज और कल दोनों को साथ लेकर चलता है। मैं भी कहां चला गया...बात तो मुकेश की कर रहा था...हां मैंने कल कुछ गीत सुने...और उन गीतों से कुछ निकालकर एक नोटपेड पर लिख लिया..ताकि वो आप तक लिखित रूप में पहुंच सकें।

कहीं दूर जब दिन ढल जाए
सांझ की दुल्हन बदन चुराए
चुपके से आए..
मेरे ख्यालों के आंगन में
कोई सपनों के दीप जलाए............दीप जलाए
कहीं दूर जब दिन ढल जाए...........
इस गीत के बोल जितने दिलकश हैं, उतनी ही दिलकश आवाज में मुकेश ने गाया है, और शलिल चौधरी की धुन भी लाजवाब है। ये गीत दिल को इस तरह छूता है कि आप साथ साथ गुनगुनाने से रह ही नहीं सकते, हो सकता है कि गुनगुनाते हुए आप ऐसे माहौल में पहुंच जाते हैं जहां आपको शांति एवं ताजगी महसूस होती है।

आवारा हूं आवारा हूं
या गर्दिश में हूं
आसमां का तारा हूं
घरबार नहीं
संसार नहीं
मुझसे किसी को प्यार नहीं
उस पार किसी से मिलने का एकरार नहीं
मुझसे किसी को प्यार नहीं
इंसान नगर अनजान डगर का प्यारा हूं
आवारा हूं आवारा हूं
आवारा हूं आवारा हूं
या गर्दिश में हूं
आसमां का तारा हूं
आबाद नहीं बर्बाद सही
गाता हूं खुशी के गीत मगर
जख्मों से भरा है सीना है मेरा
हँसती है मगर ये मस्त नजर
दुनिया मैं तेरे तीर का या तकदीर का मारा हूं
आवारा हूं आवारा हूं
या गर्दिश में हूं
आसमां का तारा हूं
इस गीत को बहुत पहले मैंने विविध भारती पर सुनना था, और तब से इस गीत को मैंने अपने मनपसंद गीतों में शामिल कर लिया था। जिस रेडियो पर इसको सुना था वो आजकल बठिंडा से प्रकाशित होने वाले सांध्य दैनिक ताजे बठिंडा के ऑफिस में पड़ा है। वहां युवा तो इतना नहीं सुनते लेकिन वहां मेरे एक अंकल है, जिसको रेडियो सुनना बेहद पसंद है, इसलिए जब मैंने ऑफिस छोड़ा तो वो मैंने उनके लिए छोड़ दिया। आज के धूम धड़ाके वाले कान फोडू म्यूजिक में वो आनंद नहीं जो पुराने संगीत में था।

जीवन के सफर में
तन्हाई
मुझ को तो न जिन्दा छोड़ेगी
मरने की खबर ए जाने जिगर
मिल जाए कभी तो मत रोना. ..
हम छोड़ चले हैं महफिल को
याद आए कभी तो मत रोना
इस दिल को तसल्ली दे देना
दिल घबराए कभी तो मत रोना
इस गीत को सुनते हुए ऐसा लगता है कि मुकेश अब रोए अब रोए...क्योंकि पूरा गीत गम से लबालब है। अंतिम अंतरा लिखते हुए शायद लिखने वाले की आंखों में भी आंसू तो आए होंगे। एक तो गीत दर्द भरा और उपर से मुकेश की दर्द भरी आवाज का सहारा मिल गया। जब दो एक जैसी चीजें एक दूसरे में समाती हैं तो कुछ नया एवं लाजवाब निकलता है।

शुक्रवार, अगस्त 21, 2009

खून से लथपथ पिता जब घर पहुंचे

सुबह के चार बजे घर का दरवाजा किसी द्वारा खटखटाने की आवाज आई और मेरी मां दरवाजे की तरफ दौड़ी, क्योंकि आधी रात के बाद से वो मेरे पिता का इंतजार कर रही थी, जिसको ढूँढने के लिए मेरे परिवार के सदस्य गए हुए थे। ऐसे में अगर हवा भी दरवाजा खटखटा देती तो भी स्वाभिक था कि मेरी मां दरवाजे की तरफ इसी तीव्र गती से दौड़ती क्योंकि अचानक मांग का सिंदूर कहीं चल जाए तो साँसें भी अटक अटक आती हैं। ऐसा ही कुछ हाल था मेरी मां का उस दिन। मेरी मां ने जैसे ही दरवाजा खोला तो देखा के खून से लथपथ एक व्यक्ति खड़ा है, ये व्यक्ति कोई और नहीं मेरे पिता जी थे। शहर की गलियां पानी से भरी हुई थी तो मेरे पिता के कपड़े रक्त से। मां पिता की ये स्थिति देखते ही दंग रह गई, जैसे पांव से जमीं छू मंत्र हो गई हो, गले से जुबां ही गायब हो गई हो। मेरी मां को लगा आज या तो ये कैसी को मौत के घाट उतारकर आएं हैं या फिर आज किसी ने इनके शरीर को हथियारों के प्रहार से छलनी कर दिया। बिन शोर मचाए चुपचाप बाजूओं के सहारे मेरी मां पिता को कमरे के भीतर ले आई, यहां मैं और मेरी छोटी बहन घोड़े बेचकर सोए हुए थे।

एक सोच पर प्रतिबंध कहां तक उचित ?

जब मेरी मां ने पिता का कुर्ता उतारा तो उसकी आंखें खुली की खुली रहेगी। गले में सांसें अटक गई। अब तो मां पत्थर में तब्दील हो चुकी थी, क्योंकि पिता के शरीर की हालत देखते किसी की भी वो हालत हो सकती थी, जो मेरी मां की हुई। पिता के जिस्म पर एक नहीं दस ग्यारह जोक चिमटे हुए थे, जो शरीर से जुदा हुए लोथड़ों की तरह प्रतीत हो रहे थे। जोक तो एक भी बुरी, क्योंकि जोक इंसान का पूरा खून पी जाती है और मेरे पिता के शरीर पर दर्जन भर जोकें थी। मेरी मां ने हिम्मत जुटाते हुए सभी जोकों को एक एक कर उतारा..और जख्मों पर हल्दी तेल में लिप्त रूई के गोले रखे। अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर ऐसे मेरे पिता के साथ हुआ कैसे ?

बात कुछ इस तरह है कि उन दिनों हम बठिंडा शहर में रहते थे। हमारे पास ट्रैक्टर हुआ करता था जो ठेकेदारी के काम पर चलता था। और उन्हीं दिनों शहर में तीन से चार फुट तक पानी भर गया। शहर का पूरा जनजीवन अस्त व्यस्त हो गया। हमारे लिए जनजीवन अस्त व्यस्त होना कोई मायने नहीं रखता था क्योंकि हम बच्चे तो बारिश के पानी में कागज की नाव छोड़कर उसके डुबने का मंजर देखते थे। शहर को पानी के चुंगल से निजात दिलाने के लिए हमारे ट्रैक्टर को भी अन्य ट्रैक्टरों के साथ शहर का पानी नहर में फेंकने के लिए नहर किनारे लगा दिया गया। जहां एक तरफ गहरे गहरे खतरनाक खतान तो दूसरी तरफ बहती नहर। बीच में हमारा ट्रैक्टर चल रहा था। रात का समय था, तो पिता जी को पीने का शौक था। उस रात भी उन्होंने पी ली..जिसके बाद पता नहीं क्या हुआ? वो वहां से निकल गए।

जब रात को उनको देखने उनका एक अन्य साथी वहां पहुंचा तो देखा कि ट्रैक्टर चल रहा है, मगर हेमा कहीं नजर नहीं आ रहा तो उसने काफी आवाजें लगाई। सामने से कोई उत्तर नहीं आया और चारों ओर पानी फैला हुआ था। ऐसे में उसको लगा कि हेमा कहीं पानी में बह गया, वो व्यक्ति घर की तरफ दौड़ा। उसने मेरी मां और पूरे परिवार की नींद उड़ा दी। सब मेरे पिता को ढूंढने के लिए निकल गए। वो कहां किसी को मिलने वाले थे, सब उनको तीन चार फुट पानी में पैदल चलकर ढूंढ रहे थे और वो पता नहीं कहां कहां से होते हुए घर पहुंच गए। पर उनके शरीर पर लगी जोकें बयान करती थी कि वो मौत को मात देखकर आएं और खतानों के बीच से आएं हैं। जब सुबह बिस्तर से पिता जी उठे तो बोले मुझे क्या हुआ और ट्रैक्टर के पास कौन है? मेरी मां गुस्से में थी, उसने उस वक्त को चटपटा जवाब दिया जो मैं भूल गया शायद।

रविवार, अगस्त 16, 2009

तोतली जुबान से जब पिता को टोका

रात का समय था और हमारे घर मेरे पिता श्री अपने एक अन्य दोस्त के साथ बैठकर शराब का लुत्फ उठा रहे थे. मैं दूर खड़ा इस दृश्य को बड़ी गौर से देख रहा था, पता नहीं मुझे क्या हुआ, मैं उनके पास गया और बोला, अंकल जी अगर आप ने शराब पीनी है तो हमारे घर में मत आया करो.

मेरे शब्द सुनते ही मेरे पिता एवं अंकल जी दंग रह गए, उन्होंने इधर उधर देखा, शायद वो सोच रहे थे कि मुझे यह बात कहने के लिए मेरी मम्मी ने भेजा है. अभी वो इधर उधर देख ही रहे थे कि इतने में मेरी मम्मी पड़ोस में रहने वाली मेरी भाभी के घर से आई. जैसे अंकलजी ने देखा कि मेरी मम्मी बाहर आ रही हैं तो वो हंसते हुए बोले अगर भाभी जी आप बाहर न होते तो मुझे लगता कि आप ने इसको समझाकर मेरे पास भेजा होगा.

मेरे अंकलजी ने मुझे गोद में बिठाया और बोले ठीक है सरपंच आज के बाद घर से बाहर पिया करेंगे. इसके बाद मेरे पिता जी ने मेरी तारीफों के पुल बांधने शुरू कर दिए. मेरे पिता जी शराब पीकर अकसर मेरी तारीफ किया करते थे. मेरे पिता को मेरी याददाश्त पर बहुत गर्व था क्योंकि मुझे घर की हर चीज एवं हर बात याद रहती थी जो कि कभी कभी मेरे पिता को हैरत में डाल देती थी. जब उक्त घटना घटित हुई तब शायद मेरे चार वर्ष का था.