शुक्रवार, अप्रैल 09, 2010

उस दिन का पागलपन

दो बजने में कुछ मिनट बाकी थे, और स्कूल की छुट्टी वाली घंटी बजने वाली थी, लेकिन हम दूसरे गाँव से पढ़ने आते थे, इसलिए हमारे लिए स्कूल की घंटी बजने से ज्यादा महत्वपूर्ण था बस का हॉर्न। उस दिन जैसे ही बस ने गाँव के दूसरे बस स्टॉप से हॉर्न दिया, तो हमारे गाँव के सब लड़के स्कूल के मुख्य दरवाजे की तरफ दौड़ने लगे। मेरे गाँव के सब लड़के स्कूल की दीवार के उस पार खड़े मुझे आवाज दे रहे थे, ओए पंडता (पंडित) जल्दी आ, बस आने वाली है, लेकिन मैं और मेजर फँसे खड़े सौ के करीब लड़कों की भीड़ में। पंगा पड़ा हुआ था, एक लड़की को लेकर, जो इस स्कूल में पढ़ने के लिए आई थी, दूसरे किसी शहर से, लेकिन उसके शहरीपन ने स्कूल का माहौल बिगाड़ दिया, अब हर कोई प्यार इश्क की बातें करने लगा, लड़कियाँ लड़कों से फ्रेंडशिप करने के बारे में सोचने लगी। बस गलती इतनी सी थी मेजर की, वो दोस्त के कहने में आ गया और सोचने लगा वो लड़की उस पर मरती है, जबकि ऐसा कुछ नहीं था, क्योंकि मैं उससे स्पष्ट शब्दों में पूछ चुका था। सुंदर लड़की पर कौन नहीं मरना चाहेगा, पूरा स्कूल उसकी तरफ देखता था, मैं नहीं मेरी निगाहें कहीं और थी।

अब जैसे स्कूल में पता चला कि मेजर उस लड़की पर लाईन लगाता है, तो उस गाँव के सब लड़के सख्ते में आ गए। और उन्होंने मेजर को स्कूल में पीटने का प्लान बना लिया। मेरे सब दोस्तों को पहले पता चल गया था, वो सब के सब तो स्कूल के पिछले रास्ते से निकल बस स्टॉप पर पहुंचकर मुझे आवाज दे रहे थे, लेकिन मैं मेजर को स्कूल के बरामदों से बस स्टॉप की तरफ खींचकर ले जा रहा था, वो लड़कों की भीड़ देखकर घबरा रहा था, पैर पीछे खींच रहा था, लेकिन मेरा मन उसको अकेले छोड़ भाग जाने को नहीं करा, मैंने कहा मैं भी तो तेरे साथ चल रहा हूँ, तू क्यों डर रहा है, तुझे रोज इस स्कूल में आना है, अगर तू डरेगा तो ये लोग तुम्हें घर में घूसकर मारेंगे, तू डर मत मेरी बाजू पकड़, मैं देखता हूँ कौन रोकता है रास्ता।

सौ के करीब लड़कों की भीड़ मुख्य द्वार और बरामदे के बीच वाले रास्ते पर खड़ी थी, जैसे ही हमने कदम बरामदे से बाहर निकाले, वो सबके सब मारने के लिए अपने हाथ को तनने लगे, वो किसी भी समय हम पर हमला कर सकते थे, लेकिन मैं निरंतर उसको लेकर आगे बढ़ा, अब हम दोनों को लड़कों ने चारों ओर से घेर लिया था। एक लड़के ने मुट्ठी बंद कर जैसे ही मेरे गुप्तअंग की तरह प्रहार करने की कोशिश की, तो एक पीछे से आई आवाज ने उसकी मुट्ठी को वहाँ ही रोक दिया। "पंडतां दा मुंडा ए, देखके मारी" (पंडितों का लड़का है, देखकर मारना)। इस पंक्ति ने सबको पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया, और मैं निरंतर उसको लेकर आगे बढ़ता गया, और हम स्कूल के द्वार के बाहर निकल गए, कुछ देर में उधर से बस भी आ गई, हम दौड़कर बस की छत्त पर चढ़ गए। मेरे दोस्तों ने कहा, ओए पंडता तू बच गया, आज तेरे साथ बहुत बुरा होता, तुम्हें सन्नी देओल बनने की क्या जरूरत थी। इतना सुनते ही जब मैं उस दृश्य को ख्याल में देखा तो सच मानो, मेरे पैरों तले जमीं निकल गई, अगर कुछ हो जाता तो?