मंगलवार, जनवरी 19, 2010

जब मुश्किल आई, माँ की दुआ ने बचा लिया

मेरी आदत है कि कहीं से कोई भी सामान खरीदने से पहले अपना पर्स जरूर चैक करता हूँ, क्योंकि मेरी जेब में पैसे बच जाए, मानो बिल्ली के पास दूध। हाँ, जब कभी ऐसा करने में चूक जाऊं या फिर मुश्किल में फँस जाऊं तो माँ की दुआ ही बचाती है। सच में माँ की दुआओं में बहुत शक्ति होती है। मैंने तो उस शक्ति को हर पल महसूस किया है। बात है कल दोपहर की, जब मैंने दफतर की कैंटीन से हर रोज की तरह खाना मंगवाया। खाना आ गया, और खा भी लिया बड़े शौक से, लेकिन अब पैसे देने की बारी आई तो पर्स में से केवल पाँच पाँच के दो मरियल से नोट निकले, और बाकी सब नोट बड़े। अब कैंटीन वाले को देने थे 15 रुपए, मेरे पास खुले केवल दस रुपए। मैंने कैंटीन मालक से दस रुपए देते हुए कहा कि बाकी के पाँच रुपए शाम तक भेजवाता हूँ, वो जानता था कि पैसे आ जाएंगे, कहीं नहीं जाएंगे। अब वहां से उसका अहसान लेकर ऑफिस में आ गया। फिर शुरू हो गई कीबोर्ड की धुनाई, जैसे धोबी कपड़ों की और लुहार लोहे की धुनाई करता है। उंगलियों ने चलना धीमा कर दिया, मतलब कहने लगी हों कि अब बस थोड़ा सा आराम ले लेने दो। मैंने उंगलियों की थकावट को दूर दौड़ाने के लिए, उनसे कसरत करवाई। इतने में मेरा हाथ मेरी छाती पर आ गया। और उसने कुर्ते की ऊपर वाली जेब में एक कागज के होने का अहसास महसूस किया, मेरे दिमाग के हुकम पर उंगलियाँ मेरी जेब के भीतर घुस गई, वहां से एक कागज निकला, लेकिन ये कागज नहीं था, बल्कि दस का नोट था। जो धुलाई के बाद गुचपुच हो गया था। उस नोट को देखते ही माँ याद आ गई। माँ की दुआ याद आ गई। मैं कभी नहीं भूला कि एक दफा माँ ने कहा था कि तुम पैसे रख रख भूलोगे। सच में ऐसा मेरे साथ कई दफा हुआ, मैं कपड़ों में पैसे रखकर भूल गया, और बुरे वक्त पर वो ही पैसे मेरे काम आए, सच कहूँ तो डूबते को तिनके का सहारा मिल जाता है। जैसे किसी खिलौने को देखकर बचपन की याद ताजा हो जाती है, वैसे ही माँ की कही कोई बात सामने आते ही, माँ के दर्शन हो जाते हैं। वो कई साल पहले इस दुनिया से तो विदा हो गई, लेकिन अपने बेटे के साथ वो कदम दर कदम आज भी चलती है। वो माँ की गोद ही है, जहाँ जाकर हर डर गायब हो जाता है। सच कहूँ।

मुझे जब कभी डर लगा,
मैंने माँ की गोद में सर रख लिया।
डर छूमंत्र हुआ पल में
जब माँ ने सर पर हाथ रख दिया।।

रविवार, जनवरी 10, 2010

जब प्यार हुआ मुझे

यही दिन थे (मई-जून), वेबदुनिया में आए अभी छ: महीने हुए थे। घर से कभी बाहर नहीं निकला था, इसलिए इन दिनों मैंने वेबदुनिया छोड़ने का मन बना लिया था, लेकिन कहते हैं ना कि समय से पहले और किस्मत से ज्यादा किसकी को कुछ नहीं मिलता, ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ, मुझे भी मेरे शहर वापिस जाना नहीं मिला, और इंदौर का होकर रह गया, पता नहीं कितने समय के लिए। हां, अगर उस वक्त मेरे प्रोजेक्ट लीडर मुझे न रोकते तो शायद में आज आपके सामने यह बातें पेश न कर पाता। मुझे पैसे ने नहीं बल्कि उनके स्नेह ने रुकने के लिए मजबूर किया।


मैं आम दिनों की तरह अगले दिन ऑफिस में आया, और उसी पुराने अंदाज में सबको नमस्ते, सत श्री अकाल, नमस्कार और गुड मार्निंग कहा, मुझे नहीं मालूम था कि मेरा यह स्टाइल किसका दिल चुरा लेगा, वेबदुनिया ने उन दिनों कई भाषाओं में पोर्टल शुरू किए थे, जिसके चलते नए नए चेहरों की भर्ती हो रही थी, इनमें एक चेहरा था, जो मेरे राज्य से न था, जो मेरी मां बोली को नहीं बोल सकता था, और नाहीं मैं उसकी भाषा और उसके राज्य से पराचित था। पर कहते हैं प्यार की कोई भाषा नहीं होती, जब दिल मिलते हैं तो सब फासले खत्म हो जाते हैं।

मेरी उसके साथ बहुत ज्यादा बातचीत नहीं होती थी, केवल नमस्ते और गुडमार्निंग बुलाने के सिवाय, हां कभी कभी जब वो ज्यादा काम में व्यस्त होती थी तो मैं इतना जरूर कहता था, क्या हुआ गुजारतन आज ज्यादा ही व्यस्त हो, इसके अलावा शायद हमारी एक ढाबे पर काफी लम्बी बातचीत हुई थी, तब दोनों की बीच में ऐसा कुछ नही था। बस रिश्ता था तो एक साथ कंपनी में काम करते हैं। मैं उन दिनों प्यार करने से कतराता था, क्योंकि घर में बापू की लठ से डर लगता था, क्योंकि वह अक्सर कहते थे, हैप्पी तू अपनी मर्जी से दुल्हन लेकर आएगा, और मेरी तेरी उस दिन लठ से पिटाई करूंगा, वो मुझे बहुत स्नेह करते थे, मैं भी उनसे। मगर मैं कहता था, जिस लड़की को मेरी मां चुनेगी, वो ही मेरी दुल्हन होगी, क्योंकि मैं अपनी मां से बेहद प्यार करता था और करता हूं।

मेरी बातों का किला उस समय ढह गया, जब मैं एक रात आफिस से काम कर रात के बारह बजे घर की तरफ अपनी मस्ती में गीत गाते हुए अकेला जा रहा था, ऐसे में अचानक मेरे मोबाइल पर एक अनजाने से नम्बर से एक मैसेज आया, मैंने दिमाग की सारी जासूसी इंद्रियां दौड़ाई, मगर मुझे याद नहीं आया कि यह नम्बर किसका है, मैंने मैसेज रिटर्न कर पूछा 'हू', तो आगे से जवाब आया लड़की, मुझे लगा कोई मेरा दोस्त मुझे बना रहा है, उसके रोमांटिक मैसेज लगातार आते रहे है, मैंने उसको कहा, अब मुझे सोने दो, सब मैसेज भेजना, क्योंकि मैं ठहरा आफिस प्रेमी और अगले दिन जल्दी आफिस आना था। उसने मेरी बात मान ली।

मगर अगले दिन फिर उसके हैरत में डालने वाले मैसेज आए, और मैं तंग परेशान हो रहा था, सब की मुसीबतें हल करने के लिए आगे रहने वाला हैप्पी आज खुद मुसीबत में था, इतने में मैंने वो मैसेज अपने एक अन्य दोस्त को दिखाया तो उसकी अकल के घोड़े दौड़े, उसने फटाक से कहा कि यह तो किसी गुजराती ने भेजा है, वो लड़की अब भी मेरे जेहन में न थी, मैं अब भी अपने गुजराती दोस्त परुण पर शक कर रहा था, लेकिन दिन गुजारते जैसे ही रात हुई तो तंग करने वाले का पर्दाफाश हुआ, मैंने फोन लगाया, तो आवाज मेरी पहचान में आ गई, हंसते हंसते मैंने उससे पूछा, तुम क्यों मुझे तंग कर रही हो, क्या चाहती हो? तो आगे से जवाब हंसते हंसते आया कुछ नहीं, बस दोनों ने काफी समय तक बात की और वो लड़की मेरे प्यार के मक्कड़जाल में फंस गई, प्यार हुआ और कुछ महीनों के बाद शादी हुई, हमने घरवालों को बिना बताए दोस्तों की मदद से शादी कर ली, जब इस बात का खुलासा हुआ तो दोनों घरों में खलबली मच गई, इसके बाद हमारी प्रेम कहानी में ट्विस्ट आ गया, उसके बाद जो हुआ आपको फिर कभी बताऊंगा, जब मैं जोश में लिखने के मूड मैं हुआ।। तब तक के लिए मुझे इजाजत दें।।

रविवार, जनवरी 03, 2010

इम्तिहानों के दिन और फिल्म चस्का

बचपन गुजर चुका था, और हम किशोर अवस्था से युवास्था की तरफ दिन प्रति दिन कदम बढाते जा रहे थे। ये उन्हीं दिनों की बात है। हम सब दोस्त एक कमरे में बैठकर इम्तिहानों के दिनों में पढ़ाई करते थे। पढ़ाई तो बहाना होती थी सच पूछो तो मौज मस्ती करते थे। कभी दलजिंदर के चौबारे में तो कभी कलविंदर की बैठक में...रोज रात को पढ़ाई के बहाने महफिल जमती थी। वो जट्ट सिख परिवार से संबंध थे और उन सब के बीच मैं एक पंडितों के परिवार से होता था। हम हैं पंडित, लेकिन रहनी सहनी (जीवनशैली) बिल्कुल जट्टों जैसी है। जट्ट परिवार से संबंधित जितने भी दोस्त थे, वो पढ़ने लिखने में तो बिल्कुल नालायक.. उनके मन में एक बात घर कर चुकी थी कि जट्ट पुत्र तो खेतों के लिए बने हुए और उनको डिप्टी कमिश्नर तहसीलदार तो बनना नहीं। मेरा परिवार गरीब था, इसलिए मुझे किसी न किसी तरह पढ़ाई पूरी कर नौकरी हासिल करनी थी। इसलिए उन सब में सबसे ज्यादा नम्बर लाने वाला मैं ही होता था, वो सब के सब नक्लची।