शनिवार, मई 29, 2010

अलविदा दोस्तो, जिन्दगी रही तो हजार मुलाकातें

हैप्पी तेरा फोन, पास बैठे मेरे मित्र यशपाल शर्मा ने फोन को मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा। मैंने फोन को थामते हुए..हैल्लो हैल्लो किया, सामने से संदीप सर की आवाज आई, "हैप्पी तुमको आज दो बजे जयदीप सर ने रॉल्टा बजाज वाली बिल्डिंग में बुलाया है। मैं सीट से उठा, और पारूल को कहा, चलो जल्दी खाना खाकर आते हैं, क्योंकि मुझे रॉल्टा बजाज वाले दफ्तर जाना है, वहाँ जयदीप सर ने बुलाया है। हम घर आए, बहन खाना बनाने में लगी हुई थी, जल्दी जल्दी लाँच किया। पारूल ने मुझे कुछ ट्रिक दिए, जो मेरे लिए किसी काम के नहीं थे, क्योंकि मैं मौके और स्थिति को देखकर बात करने में यकीन रखता हूँ, मैंने उसको कहा, वहाँ कोई भी बात हो, तुम मुझसे शाम तक नहीं पूछोगी, क्योंकि आज तेरा जन्मदिन है, और मैं चाहता हूँ, तेरा आज का दिन अच्छा निकल जाए। फिर ऐसे ही अचानक मेरे मुँह से निकल गया, आज सर बुलाएंगे, और कहेंगे हैप्पी तुम कल से काम पर मत आना और अपने त्याग पत्र पर साईन कर दो। वो बोली फिर तो मजा आ जाएगा। मैंने जल्दी जल्दी उसको ऑफिस छोड़ और खुद रॉल्टा बजाज बिल्डिंग की तरफ निकल गया। वहाँ पहुंचा तो वेटिंग करने के लिए कहा गया। वो ही सोफा था, वो ही स्वागत रूम, जब मैं आज से करीब साढ़े तीन साल पहले 27 दिसम्बर 2006 को वेबदुनिया में इंटरव्यू देने आया था, इंटरव्यू कैसा, पता ही था, नतीजा सकारात्मक जाएगा, हो सकता है पैसों को लेकर मामला अटक जाए, लेकिन मुझे पैसे से मोह कम है, वहाँ भी बात न अटकने वाली थी। उस इंटरव्यू में पास हुआ, तभी तो आज साढ़े तीन साल बाद फिर उसी स्गावत कक्ष में उसी सोफे पर बैठा इंतजार कर रहा था, कब सर बुलाएंगे? और बताएंगे इस बार कितनी कितनी सैलरी बड़ी है, वो बात भूल गया जो पत्नि को मजाक मजाक में कहकर निकला था। दो कप चाय पीने और काफी चेहरों को नहारते नहारते अब उबने लगा था कि इतने में अंदर जाने का फरमान आ गया। अंदर गया, वहाँ पर सर के अलावा कंपनी के अन्य उच्च अधिकारी भी उपस्थित थे। मुझे कुछ बातें सुनने के बाद साफ हो गया था कि बेटा जो बात पत्नि को बोलकर आया है, वो बात उस समय भले ही मजाक रही हो, लेकिन अब वो सत्य के इतने करीब थी कि मौन के समय जितने लब एक दूसरे के करीब होते हैं। कंपनी पदाधिकारियों ने मेरे सामने दो विकल्प रख दिए, एक त्याग पत्र और दूसरा विभाग बदलने का, तो मैंने त्याग पत्र वाला विकल्प मैंने झट से स्वीकार कर लिया। मुझे कोई अफसोस न हो रहा था, क्योंकि मेरे जेहन में गुरू हरिदत्त जोशी के संवाद बनिए की दुकान है, कब लात मारकर भगा दें, पता नहीं, रितेश श्रीवास्तव के संवाद, लाले की नौकरी है बाबू और रणधीर सिंह गिलपत्ती के संवाद मजदूरी करते हैं घूम रहे थे। जब मैं दैनिक जागरण बठिंडा में था, तो उक्त संवाद मेरे कानों में पड़ते ही रहते थे। इन संवादों ने मुझे तब तब बहुत शक्ति थी, जब जब मैंने नौकरियाँ त्यागी। मेरा मानना है कि जब एक दरवाजा बंद होता है तो कई और दरवाजे तुम्हारे लिए खुल चुके होते हैं। इस बात को सत्य होते हुए मैंने कई दफा देखा, और इस बार भी देख रहा हूँ, दोस्तो। मुझे तो इंतजार था, इस दिन का, और मैं वतन वापसी के लिए तो बहुत समय से उतावला था, लेकिन कहते हैं वक्त से पहले और तकदीर से ज्यादा किसी को कुछ नहीं मिलता। मुझे बहुत कुछ मिला है, जिसके लिए मेरी जिन्दगी में आने वाले हर शख्स का मैं ऋणि हूँ। इस संस्थान से भी मुझे बहुत कुछ मिला है, अगर यहाँ तक न आता तो शायद कभी ब्लॉगिंग की दुनिया में कदम न रख पाता। शायद इतना कुछ लिखने का साहस भी न कर पाता। मुझे इस संस्थान की बदौलत एक से एक बढ़कर इंसान मिले, जिनसे मुझे कुछ न कुछ सिखने को मिला, प्यार स्नेह तो अलग से। आज मुझे इस संस्थान से कोई गिला नहीं, और नाहीं होगा। शुरू शुरू में जरूर था, लेकिन तब न-समझ था, सुविधाएं ढूँढने के चक्कर में कंपनी को कोसता था, लेकिन जब समझ में आया कि सुविधाओं से तो कोई भी बेहतर कर लेता है, मजा तो तब है प्यारे, अगर आप असुविधाओं में रहकर कुछ बेहतर कर पाओ।अलविदा दोस्तो..जिन्दगी रही तो हजार मुलाकातें..नहीं तो, कहीं नहीं गई यादें और बातें।

शुक्रवार, मई 07, 2010

लिखने कुछ और बैठा था...लिख बैठा माँ के बारे में।

गाँव के कच्चे रास्तों से निकलकर शहर की चमचमाती सड़कों पर आ पहुंचा हूँ। इस दौरान काफी कुछ छूटा है, लेकिन एक लत नहीं छूटी, फकीरों की तरह अपनी ही मस्ती में गाने की, हाँ स्टेज से मुझे डर लगता है। गाँवों की गलियाँ, खेतों की मिट्टी, खेतों को गाँवों से जोड़ते कच्चे रास्ते आज भी मुझे मेरी इस आदत से पहचान लेंगे, भले ही यहाँ तक आते आते मेरे रूप रंग, नैन नक्श में काफी बदलाव आ गए हैं। जब गाँव से निकला था, बड़ी मुश्किल से 18 साल का हूँगा। माँ ने रोका था, मत जा शहर अभी तुम बहुत छोटे हो। अभी तुम हमारे साथ यहाँ रहो। शहर में बहुत भीड़ भाड़ है। तुमको अंधेरे से डर लगता है। अभी तुम पढ़ाई करो। नौकरी नाकरी बाद में कर लेना, लेकिन गाँव में रहने के लिए कुछ न था, किसके भरोसे रहता। वो माँ भी जानती थी, लेकिन माँ तो आखिर माँ होती है। वो कैसे अपने जिगर के टुकड़े को कुछ कागज के टुकड़ों के लिए आँखों से ओझल कर दे। गाँव छोड़ने के बाद मेरी स्थिति शादी कर चली गई लड़की जैसी हो गई, जो ससुराल में इतनी व्यस्त हो गई कि मायके में बस कभी कभार कुछ पलों के लिए ही आना होता है। माँ की दवाई लेकर जाना, गाँव जाने का एक मात्र बहाना हो गया था, इसके अलावा कुछ नहीं। बस माँ के दर्शन किए, दवाई थमाई, और हालचाल पूछा नहीं कि बस ने गाँव के दूसरे बस स्टेंड से हॉर्न बजा दिया, जैसे कह रही हो प्लीज हरी! अप। जो माँ मेरे लिए बनाती वो घर में बहन के लिए ही छूट जाता, वो बीमार थी, लेकिन बेटे के आने की बात सुनते ही तंदरुस्त हो उठी, पता नहीं क्या ऊर्जा थी बेटे के आने की खबर में, और मैं भागती जिन्दगी में सोच ही नहीं पाया कि जिन्दगी हमारी मुट्ठी में भरी रेत की तरह कण कण होकर फिसल रही है। जिन्दगी एक सफर है, इसको कहीं न कहीं तो खत्म होना है, शायद किसी का पहले और किसी का बाद में। माँ बीमार थी, लेकिन फिर भी जब मैं शहर से फोन लगाता तो माँ सबसे पहले मेरा हाल पूछती, जबकि हाल तो मुझे पूछना होता था उसका। उस समय मेरे घर में एक भी फोन नहीं थी, लेकिन आज वो नहीं तो घर में तीन तीन फोन हैं, घर का अलग, भाई का अलग और पिता का। वो दंग रह जाती जब मैं उसको बताता कि मैं ऑफिस में से बहुत देर रात निकलता हूँ घर के लिए, क्योंकि वो जानती थी मैं अंधेरे से बहुत डरता था, इतना कि पेशाब करने के लिए भी रात को रोशनी से परे एक कदम भी नहीं उठाता था। फिर पूछती खाना पीना तो अच्छा है, हाँ तेरी मौसी बता रही थी कि तुम दिन में एक बार खाना खाने लग गए हो, तो मैं कहता नहीं नहीं बाज़ार से कुछ खा लेता हूँ। कैसे कहता कि माँ मुझे रोटियाँ अच्छी नहीं लगती। गाँव में दिन की 27 रोटियाँ तोड़ने वाला शहर की भाग दौड़ में सिर्फ पाँच छ: रोटियों पर आ गया है। उसको कैसे बताऊं कि शहर आकर जाना है मैंने रोटियाँ गिनकर बनाई जाती हैं, तेरी तरह नहीं कि रोटियों से छाबा (रोटियाँ रखने वाला स्तूत की लड़की से बना डिब्बा) भरकर रख दो, जब चाहे मेरे बच्चों का मन करे खा लें। बेटे से दूर गाँव में रहना अब मुश्किल हो रहा था, शायद इसलिए एक दिन उसने फैसला किया कि अब वो शहर रहेगी, शहर की फिजाओं को माँ का फैसला ठीक न लगा, और जिस सुबह माँ ने फैसला लिया, उसी दिन की शाम वो सदा के लिए अलविदा कहकर चली गई। जाना तो सब को है, लेकिन अच्छे लोगों के साथ समय कुछ ज्यादा ही गुजारने को मन करता है। माँ के जाने के बाद सब शहर आ गए, लेकिन मैं कमबख्त फिर शहर छोड़ आया, मुझे याद है, एक बार एक पंडित ने कहा था, इस लड़के के नसीब में घर में रहना लिखा ही नहीं। पंडित की बात बेघर होना, उस घर तक ही सीमित थी, या मेरे नए बसे घर पर भी लागू होती है मुझे नहीं पता, जिसमें मैं, मेरी बिटिया और उसकी माँ रहते हैं।