सोमवार, दिसंबर 21, 2009

शौचालय और बेसुध मैं

मुझे वो दिन कभी नहीं भूलता। उस दिन मैं काम कर कर बेसुध हो चुका था। मेरा शरीर गतीविधि कर रहा था, जबकि मेरा दिमाग बिल्कुल सुन्न हो चुका था, क्योंकि काम कर कर दिमाग इतना थक चूका था कि उसमें और काम करने की हिम्मत न थी। मैंने अपनी कुर्सी छोड़ी, और टहलने के लिए नीचे के फ्लोर पर चला गया, जहां चाय और कॉफी बनाने वाली मशीन लगी हुई थी। मैंने एक कप चाय ली, और घुस गया साथ वाले रूम में, जो बिल्कुल खाली था। सोचा कि एकांत है, कुछ समय यहां पर रहूंगा तो तारोताजा हो जाऊंगा। मैंने चाय का कप एक टेबल पर रखा, और पेसाब करने के लिए बाथरूम में चला गया।

शुक्रवार, दिसंबर 11, 2009

मेरे पिता और पक्षी फीनिक्स


कुछ दिन पहले मैं अहमदाबाद के रेलवे स्टेशन पर खड़ा बठिंडा को जाने वाली रेलगाड़ी का इंतजार कर रहा था, मैं खड़ा था, लेकिन मेरी नजर इधर उधर जा रही थी, लड़कियों को निहारने के लिए नहीं बल्कि कुछ ढूंढने के लिए, जो खोया भी नहीं था। इतने में मेरी निगाह वहां पर स्थित एक किताब स्टॉल पर गई, मैं तुरंत उसकी तरफ हो लिया, जब पत्नी साथ होती है तब मैं खाने पीने के अलावा शायद किसी और वस्तु पर पैसे खर्च कर सकता हूं, इसलिए हर यात्रा के दौरान मुझे किताबें या मैगजीन खरीदने का शौक है। इस बार मैंने अपने इस सफर के लिए 'आह!जिन्दगी' को चुना, मैंने जब उसको खोला तो मैं सबसे पहले उस लेख पर गया, जो महान फुटबाल खिलाड़ी माराडोना पर लिखा गया था, इसको लेख को पढ़ते हुए मुझे मेरे पिता का अतीत याद आ गया, उनका संघर्ष याद आ गया।

शुक्रवार, अक्तूबर 23, 2009

महिलाओं का मेरे प्रति आकर्षण-पार्ट-2

आज वो बैंक भी बदल गया और मेरा बैंक खाता भी। वो बैंक अब एचडीएफसी हो गया जो कभी बैंक ऑफ पंजाब हुआ करता था, मेरा खाता भी अब इस बैंक में आ गया। वो वाला नहीं नया बैंक खाता, वो तो बहुत पहले ही बंद हो गया था, लेकिन वो पहला बैंक खाता मुझे आज भी याद है। उस बैंक में चैक लगाने और पैसे निकलवाने के लिए जाना। कतार में लगना, उस मैडम को देखना, जो मुझे कतार में लगे हुए देखती। कभी कभी कैश काउंटर पर वो भी आ जाती, बस उस दिन काम थोड़ा जल्दी हो जाता..आम दिनों के मुकाबले।

शुक्रवार, अक्तूबर 09, 2009

महिलाओं का मेरे प्रति आकर्षण


मैंने अपनी जिन्दगी में बहुत बार इस बात का अहसास किया है कि मर्दों के मुकाबले महिलाओं का मेरे प्रति आकर्षण ज्यादा रहा है। अगर आज मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो मुझे बहुत सी महिलाएं याद आती हैं, जिनका मेरे प्रति आकर्षण था, हर आकर्षण का मतलब शारीरिक संबंधों से नहीं होता। मुझे याद आ रहे हैं वो बचपन के दिन, जब मैं दारेवाला गाँव में स्थित अपने घर के बाहर मिट्टी में खेल रहा होता था और घर के भीतर मां काम में जुटी होती थी। जब मैं मिट्टी के साथ मिट्टी हो रहा होता, तो वहां से सिर पर घास की गठड़ी उठाएं जो भी महिलाएं गुजरती, वो मुझे बुलाकर एवं छेड़कर गुजरती, इतना ही नहीं कुछ तो मुझे अपनी उंगली पकड़ाकर अपने घर तक ले जाती, और मैं भी निश्चिंत उनके साथ चल देता।

रविवार, सितंबर 20, 2009

मेरी दस नंबरी टी-शर्ट


मुझे टी-शर्टों से बेहद प्यार था, मुझे टी-शर्ट और जींस पहना शुरू से ही अच्छा लगता है, लेकिन आजकल टी-शर्ट पहना कम हो गया, क्योंकि मेरा पेट बाहर आ गया है। जब मैंने वेबदुनिया को ज्वॉइन किया, तो मुझे पता चला कि वेबदुनिया में ऑफिस ड्रेस रूल हैं, लेकिन मैं बंदा बिंदास। कुछ दिन तो सोचा कि कंपनी बड़ी है, शायद रिर्सोसेज से बढ़कर रूल बड़े हों।

फिर कुछ दिनों बाद मेरी निगाहें कंपनी के एक सीनियर एवं पुराने अधिकारी पर पड़ी, जो नियम के उलट उस दिन टी शर्ट पहनकर आया हुआ था। मैं अपनी सीट से उठा और उससे पूछा क्या। सर रूल केवल नए रिर्सोसेज के लिए हैं, सबके लिए। उन्होंने कहा, नहीं सब के लिए एक ही रूल हैं। मैंने कहा आज शनिवार नहीं, और आप फॉर्मल कपड़े पहनकर नहीं आए। उन्होंने कहा, मैंने तुमको कब कहा, तुम फॉर्मल पहनकर आओ। बस फिर क्या था, मेरा वो ही पुराना राग शुरू हो गया। टी-शर्ट और पेंट। मेरे इस लुक को लेकर कुछ लोग तो मुझे टी शर्ट बॉय कहते भी थे, खासकर निहारिका पांडे, जो आजकल श्रीमति अनिल पांडे हैं।

जब मुझे वेबदुनिया की ओर से शुरूआती तीन दिन का वेतन मिला, तो उसके कैश होती ही। मैंने एक टी शर्त खरीदने की सोची। मैं टी-शर्ट खरीदने के लिए एक बड़े शोरूम के भीतर गया, मैंने एक टी-शर्ट देखी। मुझे वो पसंद आ गई, मेरी सब से बड़ी कमजोरी कोई पसंदीदा चीज लेने के लिए मोल तोल नहीं करता, जब मैंने वो टीशर्ट देखी तो मुझे बहुत पसंद आ गई। बस मैंने बोला इसको पैक कर दो। मुझे लगा कि इसकी कीमत दो ढाई सौ रुपए होगी। मगर जब बिल बनकर तैयार हुआ तो मेरी आंखें खुली की खुली रह गई। बिल पर लिखे थे साढ़े चार सौ रुपए। मैंने चुपचाप टी शर्ट लेकर वहां से निकलने की सोची।


उसके बाद मैंने उसको कम से कम दो साल तक पहना, लेकिन मेरी पत्नी को अब वो अच्छी नहीं लग रही थी, मेरे शरीर के बिगड़े स्टक्चर के कारण। उसने फाड़ दी, और वो पोचा बनकर मेरे घर का फर्श साफ करती है। बेचारी दस नंबरी मेरी टी-शर्ट।


शुक्रवार, सितंबर 18, 2009

श्राद्ध खिलाने के लिए खिलाओ रिश्वत

आज मैंने भी अपनी मां का श्राद्ध पाया, लेकिन खुद ही घर में खाया। सचमुच! यकीन नहीं आता होगा न। मुझे भी यकीन नहीं आ रहा था क्योंकि मां को पूर्वजों की रोटी खिलाते हुए देखा, किसी गरीब घर के बच्चों या परिवारजनों को। आज मेरी पत्नी बोली हम किसी पंडित पंडितायन आदि को खिलाने की बजाय मंदिर बाहर बैठे हुए भूखे नंगे लोगों को श्राद्ध की रोटी खिलाएंगे ताकि मां खुश हो सके। आखिर होममिनिस्टर के आगे हमारी कहां चलती है, वो हड़ताल पर चली या अस्तीफा देकर चली गई तो अपनी तो नैया डुब जाएगी। मैंने कहा ठीक है, उसने पूरी और खीर बनाई। मुझे भरकर एक बर्तन में खीर दे दी। मैं और मेरा तेतेरा भाई खीर पूरी लेकर मंदिर पहुंचे। हम बांटने ही लगे कि वहां बच्चों की फौज लिए बैठी एक महिला बोली, ये नहीं खाएंगे, तुम पैसे दे सकते हो। मैंने बोला, चल किसी और को खिला देते हैं। वहां गया, उस महिला ने खीर पत्तल में डलवा तो ली, लेकिन खीर बाद में वहां पर ऐसे गिर रही थी जैसे गिलास से पानी। फिर मेरी नजर एक बुजुर्ग व्हील चेयर पर बैठे साधुनुमा व्यक्ति पर पड़ी, जब उसको मैंने पूछा बाबाजी पूरी खीर खाओगे। कोई जवाब नहीं आया। इतने में वहां एक और युवक आया और मेरी तरह ही बोला। बाबा ने उत्तर दिया, दक्षण दोगे, वो पहले तो चुप हो गया। फिर दुबकी आवाज में हां बोला। इधर, बाबा ने फटाक से उच्ची आवाज में कहा क्यों नहीं खाएंगे? पहले दक्षण हो जाए। मैं चकित रह गया। फिर मैंने सोचा शायद बाबा पहले किसी सरकारी दफ्तर में था, शायद इस लिए काम के लिए पहले रिश्वत मांग रहा है। अब तो श्राद्ध खिलाने के लिए भी रिश्वत देनी पड़ती है।

रविवार, सितंबर 13, 2009

जब छोड़कर चली गई मां

मुझे आज भी याद है, वो काला दिन, जब मेरी मां ने सरकारी अस्पताल के बिस्तर पर अपनी मां (मेरी नानी) की बांहों में दम तोड़ दिया था। उस दिन मेरी मौसी, मामी, मेरी नानी और मैं, गुलूकोज की बोतल का खत्म होने का इंतजार कर रहे थे, उस पर निर्भर था मेरी का मां जीवन। मेरी मां की तबीयत बहुत नाजुक थी, और डाक्टर ने सुबह उसको देखने के बाद मुझे बोल दिया था, हैप्पी अगर वो इस गुलूकोज की बोतल को पचा गई तो मैं उसको बचालूंगा। सबकी नजरें उस बोतल थी, और मेरी मां भी अब सुबह से बेहतर लग रही थी, उसके सिर के पास बैठी मेरी नानी कह रही थी, देख शिमला (मामी) कृष्णा के चेहरे पर पहले सा ताब नजर आ रहा है। मुझे यकीन है कि कृष्णा आज शाम तंदरुस्त होकर घर पहुंच जाएगी। वहां सब एक दूसरे का मन रख रहे थे, वैसे नानी के कहने अनुसार मेरी मां के चेहरे पर पहले जैसा ताब था, वो पहले से बेहतर होती नजर आ रही थी। और इधर गुलूकोज की बोतल खत्म होने पर ही थी।

उस सुबह की बात ही है, जब मैं ऑफिस के लिए तैयार हो रहा था, तो मेरी मां बोली। हैप्पी मेरी तबीयत खराब हो रही है, तुम मुझे आज सरकारी अस्पताल में दिखाकर आओ, मैंने कहा मां कल तो दवाई लेकर आए हैं, जिससे दवाई लाए थे वो बठिंडा का मशहूर जाना माना डाक्टर है। नहीं, हैप्पी मुझे तुम एक बार सिविल अस्पताल दिखा लाओ। वहां तुम्हारी जान पहचान के डाक्टर हैं, इलाज अच्छे से कर देंगे। मैंने कहा ठीक है। और वो आंखों में आंसू लेकर बोली, आज मुझे अपने घर छोड़ आना, जो हमने शहर में नया बनवाया था, गांव से शहर आने के लिए। मैं आज से वहां ही रहूंगी, तेरे पापा को गांव से आना हो या ना। लेकिन अब मैं गांव वापिस नहीं जाउंगी। मैंने कहा ठीक है।

मैं मां को लेकर अस्पताल पहुंचा, डाक्टर ने जांच करने के बाद कहा, इसको अस्पताल में दाखिल करना पड़ेगा, मैंने कहा ठीक है। अस्पताल में दाखिल होने की बात सुनकर अस्पताल में मेरी नानी, मामी और बुआ सब पहुंच गए, मैं और मौसी तो पहले से वहां पर थे। अब उसको गुलूकोज की बोतल लगाने की बात आई, तो वहां नर्स और अन्य डाक्टर हाजिर हो गए, किसी को मेरी मां के शरीर में नस नहीं मिल रही, वो जगह जगह सूईयां चुभ रहे थे, शायद यहां कोई नस मिल जाए। मैंने कभी मां को टीका लगता नहीं देखा, आज वो मेरे सामने उसके जिस्म में सूइयां चुभो चुभोकर देख रहे थे, जैसे किसी मुर्दे के शरीर में। मेरे मुंह से गाली निकल गई, डाक्टर मेरे जानकार थे, उन्होंने कहा हैप्पी तुम बाहर जाओ। आखिर डाक्टरों को नस मिली, वो भी टखने के उपर। अब मुझे थोड़ा सा सुकून आया।

बोतल आधी खत्म हो चुकी थी, और मेरी मां के चेहरे पर सुधार के संकेत साफ साफ नजर आ रहे थे। उसने कहा हैप्पी तुम परम (छोटी बहन) टैनी (बड़ा भाई) का रखना। उसने कहा मां पानी...मामी मौसी ने झट से नानी को पानी पकड़ा और मुंह में डालने लगी कि मेरी मां को अटैक आया, और दांत जुड़ गए। पानी की एक घुंट भी अंदर न गई। और सब खत्म हो गया। 28 फरवरी 2006 शाम पांच बजे मेरी माँ इस दुनिया को अलविदा बोलकर...और कुछ जिम्मेदारियां मेरे कंधों पर डोलकर चली गई।


शुक्रवार, अगस्त 28, 2009

जब मिल बैठे तीन यार, मैं, मुकेश और गीत

गुरूवार का दिन और मैं पूरी तरह मुकेशमयी हो चुका था। सुबह सुबह तो मैंने श्री मुकेश को श्रद्धांजलि देते हुए पोस्ट लिखी। और उसके बाद मैंने इंटरनेट पर उसके गीतों को सर्च किया..और फिर डाउनलोड किया। फिर मुकेश के गीत सुनता गया और उसमें रमता गया। इन गीतों को जितनी शिद्दत के साथ लिखा गया है, उतनी ही शिद्दत से मुकेश ने इन गीतों को गाया..तभी तो सुनते ही कानों को आराम सा मिल जाता है। मैंने मुकेश के इन गीतों को कई दफा सुना और इनको अपने चुनिन्दा गीतों में शामिल भी किया हुआ है, लेकिन तब मैं नहीं जानता था कि इन गीतों को आवाज देने वाला मुकेश दा...कहते हैं कि जब तब आपके भीतर जिज्ञासा नहीं होती, तब तक आप अपने पास पड़े कोहिनूर को भी चमकीला कांच ही समझते रहते हैं। मेरे भीतर आज तक कभी ऐसी जिज्ञासा पैदा ही नहीं हुई थी कि पार्श्व गायकों के बारे में जानूं या फिर ये गीत किसने गाया इस बात पर ध्यान दूं। बस गीत अच्छा है, सुनो और लुत्फ उठाओ। बेशक विविध भारतीय वाले अपने गीतों के साथ साथ उनके गायक और गीतकार का नाम निरंतर बताते रहते हैं। हिन्दी हिंदुस्तान में कितने ही एफएम आ जाएं, लेकिन विविध भारती वो स्थान है, जहां दिल को चैन-ए-आराम मिलता है। जिस पर बजने वाले गीतों को सुनने के बाद कान ये नहीं कहते कि कानों से उतार फेंक दो एयरफोन...मन करता है कि विविध भारतीय को निरंतर सुनते रहो..विविध भारतीय आज और कल दोनों को साथ लेकर चलता है। मैं भी कहां चला गया...बात तो मुकेश की कर रहा था...हां मैंने कल कुछ गीत सुने...और उन गीतों से कुछ निकालकर एक नोटपेड पर लिख लिया..ताकि वो आप तक लिखित रूप में पहुंच सकें।

कहीं दूर जब दिन ढल जाए
सांझ की दुल्हन बदन चुराए
चुपके से आए..
मेरे ख्यालों के आंगन में
कोई सपनों के दीप जलाए............दीप जलाए
कहीं दूर जब दिन ढल जाए...........
इस गीत के बोल जितने दिलकश हैं, उतनी ही दिलकश आवाज में मुकेश ने गाया है, और शलिल चौधरी की धुन भी लाजवाब है। ये गीत दिल को इस तरह छूता है कि आप साथ साथ गुनगुनाने से रह ही नहीं सकते, हो सकता है कि गुनगुनाते हुए आप ऐसे माहौल में पहुंच जाते हैं जहां आपको शांति एवं ताजगी महसूस होती है।

आवारा हूं आवारा हूं
या गर्दिश में हूं
आसमां का तारा हूं
घरबार नहीं
संसार नहीं
मुझसे किसी को प्यार नहीं
उस पार किसी से मिलने का एकरार नहीं
मुझसे किसी को प्यार नहीं
इंसान नगर अनजान डगर का प्यारा हूं
आवारा हूं आवारा हूं
आवारा हूं आवारा हूं
या गर्दिश में हूं
आसमां का तारा हूं
आबाद नहीं बर्बाद सही
गाता हूं खुशी के गीत मगर
जख्मों से भरा है सीना है मेरा
हँसती है मगर ये मस्त नजर
दुनिया मैं तेरे तीर का या तकदीर का मारा हूं
आवारा हूं आवारा हूं
या गर्दिश में हूं
आसमां का तारा हूं
इस गीत को बहुत पहले मैंने विविध भारती पर सुनना था, और तब से इस गीत को मैंने अपने मनपसंद गीतों में शामिल कर लिया था। जिस रेडियो पर इसको सुना था वो आजकल बठिंडा से प्रकाशित होने वाले सांध्य दैनिक ताजे बठिंडा के ऑफिस में पड़ा है। वहां युवा तो इतना नहीं सुनते लेकिन वहां मेरे एक अंकल है, जिसको रेडियो सुनना बेहद पसंद है, इसलिए जब मैंने ऑफिस छोड़ा तो वो मैंने उनके लिए छोड़ दिया। आज के धूम धड़ाके वाले कान फोडू म्यूजिक में वो आनंद नहीं जो पुराने संगीत में था।

जीवन के सफर में
तन्हाई
मुझ को तो न जिन्दा छोड़ेगी
मरने की खबर ए जाने जिगर
मिल जाए कभी तो मत रोना. ..
हम छोड़ चले हैं महफिल को
याद आए कभी तो मत रोना
इस दिल को तसल्ली दे देना
दिल घबराए कभी तो मत रोना
इस गीत को सुनते हुए ऐसा लगता है कि मुकेश अब रोए अब रोए...क्योंकि पूरा गीत गम से लबालब है। अंतिम अंतरा लिखते हुए शायद लिखने वाले की आंखों में भी आंसू तो आए होंगे। एक तो गीत दर्द भरा और उपर से मुकेश की दर्द भरी आवाज का सहारा मिल गया। जब दो एक जैसी चीजें एक दूसरे में समाती हैं तो कुछ नया एवं लाजवाब निकलता है।

शुक्रवार, अगस्त 21, 2009

खून से लथपथ पिता जब घर पहुंचे

सुबह के चार बजे घर का दरवाजा किसी द्वारा खटखटाने की आवाज आई और मेरी मां दरवाजे की तरफ दौड़ी, क्योंकि आधी रात के बाद से वो मेरे पिता का इंतजार कर रही थी, जिसको ढूँढने के लिए मेरे परिवार के सदस्य गए हुए थे। ऐसे में अगर हवा भी दरवाजा खटखटा देती तो भी स्वाभिक था कि मेरी मां दरवाजे की तरफ इसी तीव्र गती से दौड़ती क्योंकि अचानक मांग का सिंदूर कहीं चल जाए तो साँसें भी अटक अटक आती हैं। ऐसा ही कुछ हाल था मेरी मां का उस दिन। मेरी मां ने जैसे ही दरवाजा खोला तो देखा के खून से लथपथ एक व्यक्ति खड़ा है, ये व्यक्ति कोई और नहीं मेरे पिता जी थे। शहर की गलियां पानी से भरी हुई थी तो मेरे पिता के कपड़े रक्त से। मां पिता की ये स्थिति देखते ही दंग रह गई, जैसे पांव से जमीं छू मंत्र हो गई हो, गले से जुबां ही गायब हो गई हो। मेरी मां को लगा आज या तो ये कैसी को मौत के घाट उतारकर आएं हैं या फिर आज किसी ने इनके शरीर को हथियारों के प्रहार से छलनी कर दिया। बिन शोर मचाए चुपचाप बाजूओं के सहारे मेरी मां पिता को कमरे के भीतर ले आई, यहां मैं और मेरी छोटी बहन घोड़े बेचकर सोए हुए थे।

एक सोच पर प्रतिबंध कहां तक उचित ?

जब मेरी मां ने पिता का कुर्ता उतारा तो उसकी आंखें खुली की खुली रहेगी। गले में सांसें अटक गई। अब तो मां पत्थर में तब्दील हो चुकी थी, क्योंकि पिता के शरीर की हालत देखते किसी की भी वो हालत हो सकती थी, जो मेरी मां की हुई। पिता के जिस्म पर एक नहीं दस ग्यारह जोक चिमटे हुए थे, जो शरीर से जुदा हुए लोथड़ों की तरह प्रतीत हो रहे थे। जोक तो एक भी बुरी, क्योंकि जोक इंसान का पूरा खून पी जाती है और मेरे पिता के शरीर पर दर्जन भर जोकें थी। मेरी मां ने हिम्मत जुटाते हुए सभी जोकों को एक एक कर उतारा..और जख्मों पर हल्दी तेल में लिप्त रूई के गोले रखे। अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर ऐसे मेरे पिता के साथ हुआ कैसे ?

बात कुछ इस तरह है कि उन दिनों हम बठिंडा शहर में रहते थे। हमारे पास ट्रैक्टर हुआ करता था जो ठेकेदारी के काम पर चलता था। और उन्हीं दिनों शहर में तीन से चार फुट तक पानी भर गया। शहर का पूरा जनजीवन अस्त व्यस्त हो गया। हमारे लिए जनजीवन अस्त व्यस्त होना कोई मायने नहीं रखता था क्योंकि हम बच्चे तो बारिश के पानी में कागज की नाव छोड़कर उसके डुबने का मंजर देखते थे। शहर को पानी के चुंगल से निजात दिलाने के लिए हमारे ट्रैक्टर को भी अन्य ट्रैक्टरों के साथ शहर का पानी नहर में फेंकने के लिए नहर किनारे लगा दिया गया। जहां एक तरफ गहरे गहरे खतरनाक खतान तो दूसरी तरफ बहती नहर। बीच में हमारा ट्रैक्टर चल रहा था। रात का समय था, तो पिता जी को पीने का शौक था। उस रात भी उन्होंने पी ली..जिसके बाद पता नहीं क्या हुआ? वो वहां से निकल गए।

जब रात को उनको देखने उनका एक अन्य साथी वहां पहुंचा तो देखा कि ट्रैक्टर चल रहा है, मगर हेमा कहीं नजर नहीं आ रहा तो उसने काफी आवाजें लगाई। सामने से कोई उत्तर नहीं आया और चारों ओर पानी फैला हुआ था। ऐसे में उसको लगा कि हेमा कहीं पानी में बह गया, वो व्यक्ति घर की तरफ दौड़ा। उसने मेरी मां और पूरे परिवार की नींद उड़ा दी। सब मेरे पिता को ढूंढने के लिए निकल गए। वो कहां किसी को मिलने वाले थे, सब उनको तीन चार फुट पानी में पैदल चलकर ढूंढ रहे थे और वो पता नहीं कहां कहां से होते हुए घर पहुंच गए। पर उनके शरीर पर लगी जोकें बयान करती थी कि वो मौत को मात देखकर आएं और खतानों के बीच से आएं हैं। जब सुबह बिस्तर से पिता जी उठे तो बोले मुझे क्या हुआ और ट्रैक्टर के पास कौन है? मेरी मां गुस्से में थी, उसने उस वक्त को चटपटा जवाब दिया जो मैं भूल गया शायद।

रविवार, अगस्त 16, 2009

तोतली जुबान से जब पिता को टोका

रात का समय था और हमारे घर मेरे पिता श्री अपने एक अन्य दोस्त के साथ बैठकर शराब का लुत्फ उठा रहे थे. मैं दूर खड़ा इस दृश्य को बड़ी गौर से देख रहा था, पता नहीं मुझे क्या हुआ, मैं उनके पास गया और बोला, अंकल जी अगर आप ने शराब पीनी है तो हमारे घर में मत आया करो.

मेरे शब्द सुनते ही मेरे पिता एवं अंकल जी दंग रह गए, उन्होंने इधर उधर देखा, शायद वो सोच रहे थे कि मुझे यह बात कहने के लिए मेरी मम्मी ने भेजा है. अभी वो इधर उधर देख ही रहे थे कि इतने में मेरी मम्मी पड़ोस में रहने वाली मेरी भाभी के घर से आई. जैसे अंकलजी ने देखा कि मेरी मम्मी बाहर आ रही हैं तो वो हंसते हुए बोले अगर भाभी जी आप बाहर न होते तो मुझे लगता कि आप ने इसको समझाकर मेरे पास भेजा होगा.

मेरे अंकलजी ने मुझे गोद में बिठाया और बोले ठीक है सरपंच आज के बाद घर से बाहर पिया करेंगे. इसके बाद मेरे पिता जी ने मेरी तारीफों के पुल बांधने शुरू कर दिए. मेरे पिता जी शराब पीकर अकसर मेरी तारीफ किया करते थे. मेरे पिता को मेरी याददाश्त पर बहुत गर्व था क्योंकि मुझे घर की हर चीज एवं हर बात याद रहती थी जो कि कभी कभी मेरे पिता को हैरत में डाल देती थी. जब उक्त घटना घटित हुई तब शायद मेरे चार वर्ष का था.

शुक्रवार, जुलाई 31, 2009

एक आंसू गिरा उसकी आंख से....

वो ही रेलवे स्टेशन, वो ही रेलगाड़ी, पर कुछ बदलाव था इस बार। फर्क इतना था कि कभी इस गाड़ी से मैं आया था, और आज इस गाड़ी से कोई जा रहा था। जैसे परिंदे दाने चुगने के बाद अपने घरों की तरफ चल देते हैं, वैसे ही एक परिंदा आज यहां से उड़कर अपने घर जाने को तैयार था, बस देरी थी रेल गाड़ी छूटने की। सच में वो परिंदे नसीब वाले होते हैं, जिनको शाम ढले अपने बसेरे में पहुंचने को मिल जाता है, और कुछ बद-नसीब परिंदे जो बस उस दिन की बोट जोहते हैं, जिस दिन उनकी तकदीर बदले, और वो अपने वतन में, अपनों के बीच, अपनी जिन्दगी के कीमती लम्हे गुजारें। प्रवासी होने का गम बहुत बड़ा होता है, इसलिए इस बार दोस्त की विदाई के वक्त गम से ज्यादा खुशी थी कि वो अपने घर जा रहा है, अपनों के बीच। उन गलियों में, जिन गलियों को छोड़कर वो कभी इस जगह पहुंच गया था, जहां सिर्फ उसके पास नए दोस्त थे और कुछ अजनबी लोग। हम अप्रवासियों को भी अप्रवासियों का सहारा होता है, आज वो एक सहारा खत्म हो रहा था। रेलवे स्टेशन विदाई का वक्त, और सब ठहाके लगा रहे थे, शायद हँसी के तले गम छुपा रहे थे। गम तो होता ही जब को साथी चला जाए। वो भी हँसते हुए एसी कोच में चढ़ गई, गाड़ी वाले बाबू को क्या पता कि वो कितनों को बिछोड़कर लेकर जा रहा है और कितनों को अपनों से मिलाने के लिए। उसका तो काम है गाड़ी चलाना। गाड़ी अपने समय पर प्लेटफार्म से छूटी। वो हाथ हिलाते हुए दरवाजे से विदा ले रही थी, और रेलगाड़ी के साथ साथ हम से दूर जा रही थी, इतने में उसका हाथ उसका उसके चेहरे की तरह गया और फिर पीछे चला गया। इतने में वो आंखों से ओझल हो गई। मुझे नहीं पता, उसने हाथ नीचे की तरफ क्यों क्या किया, लेकिन
मुझे ऐसा लगा कि जो आंसू उसने दोस्तों के बीच खड़े होकर विदाई के वक्त छुपाए थे, उनमें से उसकी आंख से के मोती सा आंसू रेल की पट्ड़ी पर जा गिरा। अगर ये सच हुआ तो मैंने उसकी आंख से एक आंसू गिरते देखा, लेकिन उसने कितने आंसू रेलवे की सीट पर गिराए होंगे, ये मैं नहीं जानता। इस सवाल का जवाब वो खुद लिखेगी, जब वो इस ब्लॉग को पढ़ेगी। जब वो इंदौर में आई थी, तब मेरे लिए बिल्कुल आजकल थी, मगर जब वो इंदौर से गई तो इतनी खास हो गई कि अगर कभी खुदा ने मौत से पहले पूछा बोल तेरी आखिरी ख्वाहिश क्या है, तो जुबां पर आने वाले नामों में इस दोस्त का भी नाम होगा। पता नहीं, तब मुझे शायद ये मेरा दोस्त याद रखेगा, या अपनी जिन्दगी में मस्त होकर मुझे सदा के लिए भुला देगा। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि मैंने तो इस दोस्त को सदा याद करने के लिए अपने ब्लॉग पर छोड़ दी दे लिखत...जब जब कोई प्रतिक्रिया भेजेगा..तब तब इंदौर और इस दोस्त की याद ताजा होती रहेगी। वैसे याद तो उनको किया जाता है, जिनको कभी भूले हों...

रविवार, जून 21, 2009

माँ छांव तो बाप कड़ी धूप

जब भी पिता ने हमको मारने की कोशिश की, मां बीच में दीवार बन खड़ी हो गई। हमारे तन पर पड़ने वाली लठें उसने अपने तन पर सही। हमारे बचाव में जब भी मां उतरती तो पिता के मुँह पर एक बात होती थी कि 'माँ बिगाड़ती है और पिता संवारता था'। पिता के इन शब्दों से मैं कुछ हद तक सहमत हूं, अगर सिर पर पिता के डर का साया न हो तो शायद बच्चे उतनी सीमा में नहीं रहते जितनी में रहना चाहिए। मुझे लगता है कि माँ हमारे अनुकूल बनती है, जबकि पिता हमको समाज के अनुकूल बनता था। माँ हमारी हर गलती को छुपाती है, लेकिन पिता उन गलतियों को छापने के बजाय उन गलतियों को दोहराने से रोकता है। मुझसे पता है कि मेरे पिता का स्वभाव बहुत गर्म था, जो अब उतना नहीं। लेकिन माँ स्वभाव में बिल्कुल इसके विपरीत थी। हम पिता से इतना डरते थे कि अगर वो आते दिख जाते तो हम खेलना छोड़कर घर के भीतर चले जाते। ये भी उनके भय के कारण ही हुआ, जो हम बुरी संगत से दूर रहें, स्कूल से कोई शिकायत लेकर घर नहीं आए। किसी लड़की के पीछे नहीं गए, किसी को सीटी बजाकर छेड़ा नहीं। जब ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों को टीचर पीटते हैं तो वो शिकायत लेकर घर नहीं आते, अगर आते हैं तो सिर्फ माँ को बताते हैं, क्योंकि उनको पता होता है कि पिता को बताया तो वो सीधा स्कूल जाएंगे, इस लिए नहीं कि टीचर ने उनकए बच्चे को क्यों पीटा, बल्कि इस लिए जाएंगे कि आपने इसको और अच्छे से क्यों नहीं पीटा। अगर पिता को दूसरे नजरिए से देखें तो कहूंगा कि अगर माँ प्यार का सागर है तो पिता क्रेडिट कार्ड है। जिसके बल पर ऐश करने का अपना ही मजा है। जब हम सब पुत्र होते हैं तो हमको बाप की डाँट फटकार बुरी लगती है और माँ का दुलार भाता है। मगर जब हम अपने पिता वाली जॉब पर आते हैं तो हम वो ही करते हैं, जो हमारे पिता करते थे। अपने बच्चे की गलतियों को सुधारना और उनको फिर से न दोहराने के सीख देना आदि। तब जब हमारी पत्नियाँ हमारी माँ वाली ड्यूटी निभाती हैं तो हमको बुरा लगता है। जिन्दगी में जितनी माँ की अहमियत है, उतनी ही पिता की। हमारा माँ से लगाव इस लिए ज्यादा रहता है क्योंकि वो हमारी गलतियों को माफ करती है, वो हमारे अनुकूल रहती है। जबकि असल में पिता खून पसीने की कमाई से हमें सफल इंसान बनाने के लिए दिन रात काम करता है, ये काम ही हमको उनके अधिक करीब नहीं आने देता। लेकिन सत्य तो ये है कि अगर माँ छांव है तो पिता एक कड़ी धूप, जो हमको हर स्थिति का सामना करने के लिए हमको कठोर बनाता है।

रविवार, मई 31, 2009

एक कश ने बिगाड़ दिए


कहते हैं कि एक कदम हमको मंजिल तक पहुंचता है तो वहीं धुएं का एक कश बर्बादी की डगर पर खींच ले जाता है, आम लोगों की तरह मेरे भी दोस्त थे, उनके पास समय बहुत था, तो एक दिन मस्ती मस्ती में, मजाक मजाक में किसी के कहने पर धुएं का एक कश ले लिया, फिर तो क्या कश पर कश का सिलसिला चल पड़ा, लेकिन वो मेरे सामने नहीं पीते थे। मेरे एक दोस्त को तो मेरे पिता ने धूम्रपान करते हुए खेत में देख लिया, और उसके बोले कि आज के बाद हैप्पी के साथ नजर मत आना, वो बोला आज के बाद नहीं पिऊंगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वो तो वहां से बचने का बहाना था, उसके बाद उनको सिग्रेट बीड़ी में भंग के पौधे से उतरा हुआ माल भरकर पीने की आदत पड़ गई। वो धूम्रपान का आदी हो चुका है, मुझे तब पता चला, जब उसका गुलाब से चेहरे पर छाइयां पड़ना शुरू हो गई। मैं अन्य दोस्त भी धूम्रपान के आदी है, इसबात का पता तब चला, जब मैं एक बार शहर से गांव गया था, और सुभाविक था कि मैं उनसे मिलने जाऊं, रात हुई तो मैं भी उनके साथ बस स्टैंड की तरफ टहलने निकल गया, वो मुझे किसे बहाने पीछे छोड़कर जाना चाहते थे, लेकिन मैं उनके कदमों से कदम मिलाता चल गया। वो दुकान पर पहुंचे, तो दुकानदार ने फटाक से सिग्रेट निकालकर दे दी, उनके बिन बोले, क्योंकि उसको पता था कि ये टोली सिग्रेट पीने आती है। उन्होंने ने पहले तो इंकार किया, लेकिन पीछे से आवाज आई रोज तो पीते हैं, आज हैप्पी के सामने भी पी लें। एक की तो कश ने जान भी ले ली, वो मेरे साथ कबड्डी खेला करता था, लेकिन उसके मां बाप ने उसको अच्छी पढ़ाई के लिए मंडी के बड़े स्कूल में भेजना शुरू कर दिया, जहां पर उसको सिग्रेट पीने की आदत हो गई। धीरे धीरे सिग्रेट में नशीले पदार्थ मिलाकर पीने की आदत पड़ गई। वो मेरा हम उम्र था, उसकी शादी कुछ साल पहले हुई थी और वो शादी के एक साल बाद भरी जवानी में इस दुनिया को छोड़कर रुखस्त हो गया।

रविवार, मई 10, 2009

मां से तोड़ आया अनजाने में रिश्ता...

यारों मैं इतना बुरा भी नहीं कि मां की कदर न करूं, मैं भी आपकी तरह मां से बहुत प्यार करता हूं और करता था एवं करता रहूंगा. लेकिन एक दिन अनजाने में उस मां से रिश्ता तोड़ आया, जब मुझे मालूम हुआ तो मैं बहुत रोया. हुआ कुछ इस तरह कि आज से तीन साल पूर्व जब मेरी मां ने सरकारी अस्पताल के बिस्तर पर दम तोड़ा, तो कुदरती था कि उसका अंतिम देह सस्कार किया जाए. मेरी मां की आर्थी शमां घाट पहुंची, उसकी चिता को अग्नि के हवाले कर दिया. उसके बाद एक रस्म होती है कि मरने वाले की चिता के पास कुछ डक्के (लकड़ी की तीलियां) बिखरे पड़े होते हैं, सब लोग उन डक्कों को चुगकर वहीं रामबाग में तोड़ देते हैं और फिर वहां से चल देते हैं. वहां सबको देखादेखी मैंने भी वैसे ही डक्का तोड़ दिया और चिता की अग्नि पर फेंक दिया. कुछ दिनों बाद जब मुझे उस रस्म के पीछे का अर्थ पता चला तो बहुत दुख हुआ, उसका मतलब होता है कि अब हमारा मरने वाले से कोई नाता नहीं, हम इस डक्के के साथ उस रिश्ते को भी तोड़ रहें है, जो तुम्हारा हम से था. मुझे इस बात का दुख है कि मैं उस मां से रिश्ता तोड़ आया, जिसने नौ माह मुझे पेट में रखा, कई सालों तक सीने से लगाकर सुलाया, अपने सीने का दूध पिलाकर बड़ा किया, उंगली पकड़कर चलना सिखाया, मुझे बोलना सिखाया.बेशक उसकी हर बात मेरे साथ है, लेकिन उक्त बात का दुख मुझे हमेशा होता है, उस मैं उसके अंतिम सस्कार पर नहीं रोया, लेकिन वैसे याद कर अक्सर रोता हूं, अगर वो होती तो शायद ऐसा होता, घर जाता तो सीने से लगाती, प्यार करती, आंखों से वजन मापती..हाथों से खाना खिलाती...
ਹੁੰਦੇ ਨੇ ਦਿਲ ਦਰਿਆ ਮਾਂਵਾਂ ਦੇ

सोमवार, अप्रैल 27, 2009

मैं, मेरे पिता और तालिबान

कीबोर्ड की टिकटिक से कोसों दूर, अपने होमटाउन में पूरा एक महीना बीत किया. लेकिन तालिबान ने वहां पर भी पीछा नहीं छोड़ा. खबरिया चैनलों के कारण हर घर में तालिबान टीवी की स्क्रीन पर नजर आता है, लोगों के दिमागों पर ही नहीं छाया बल्कि लोगों की जुबां पर भी तालिबान शब्द चढ़ गया.इंदौर से मैं बठिंडा के लिए पिछले महीने निकला था, घर शाम को पहुंचा, घर में मेरे पिता जी और अन्य दो व्यक्ति बैठे हुए टीवी देख रहे थे, और उनके बीच बातें हो रही थी तालिबान की. मैं हैरान था कि जहां भी तालिबान की बातें, तो इतने में टीवी पर आ रही एड खत्म हुई तो एक न्यूज एंकर बताने लगा तालिबान की हिम्मत. वो सब गौर से देखने लगे और सुनने लगे. फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि तालिवाल क्या है? ये तो लगता है पाकिस्तान को खत्म कर देगा. लेकिन मैं उनको क्या समझाता कि मुट्ठी भर लोग कुछ नहीं कर सकते, लेकिन जो ताकत इनके पीछे काम कर रही है, उसका मकसद बस आतंक फैलाना है. मेरे पिता जी तो तालिबान को तालिवाल ही कहते हैं.सच बोलूं तो मेरे पिता जी और उसके साथी, तालिबान को इस तरह देखते है जैसे आज के बच्चे कार्टून नेटवर्क चैनल पर टॉम एंड जेरी को देखते हैं. जब घर से पिताजी बाहर होते हैं तो टीवी पर पंजाबी गीत सुनने को मिलते थे, जैसे मेरे पापा जी घर में प्रवेश करते तो सब टीवी छोड़कर भाग जाते और कहते आ गए तालिबान, तालिबान. मेरे घर के समीप एक घर बनाने का काम करने वाला मिस्त्री रहता है, जब तक वो शाम को मेरे पापा के पास आकर हमारे टैलीविजन पर तालिबान संबंधित खबरें न सुन ले, उसको शायद रोटी हजम नहीं आती, मेरी बहन भाभी चिल्लाते रहते हैं कि छोटी बहू देखनी है, राधिका वाला सीरियल देख लेने दो.अब रिमोट डैडी के हाथों में होता है तो बस खबरिया चैनल चलते हैं, पंजाबी न्यूज चैनल नहीं चलाते क्योंकि वो तो जब देखो तब बादल का गुनगाण करते रहते हैं. और इन चैनलों पर कैप्टन साहिब की फोटो तो तब ही आती है, जब कोई एंटी खबर प्रसारित हो रही होती है. इस लिए हिन्दी चैनलों पर जोर है, हिन्दी चैनल भी वो जो तालिबान की खबरें देता हो..ऐरा गैरा चैनल तो पसंद ही नहीं उनको. हिन्दी भी कम ही समझ आती होगी, मेरे पिता जी और अन्य लोगों को. लेकिन अगर तालिबान की स्टोरी इंग्लिश चैनल पर भी आती तो वो ठहर जाते हैं और सुनते हैं,,,बेशक बाद कहें साली ये भाषा तो समझ में ही नहीं आती. एक महीने तक मैंने तालिबान की हर कड़ी देखी, मजबूरी में चाहे वो शरियत कानून लागू करने की हो, चाहे स्वात घाटी से निकलकर तालिबानी अजगर की पंजाब की तरफ रुख करने की हो या फिर अंतिम कड़ी बूनेर से तालिबान के वापिस जाने की. इसके अतिरिक्त कोड़े बरसने की. अन्य लोग (सुरजीत मिस्त्री, मोहना अंकल) और मेरे पिता जी के दरमियान जब बातें होती हैं, तालिबान की या फिर राजनीति की. इसमें कोई शक नहीं कि तालिबान को हिन्दुस्तान में खबरिया चैनलों ने हौआ बनाकर रख दिया. मैंने उनको कई बार समझाया कि तालिबान बस ऐसे है, जैसे पंजाब में कभी खालिस्तान नामक आतंकवाद ने सिर उठाया था. मगर खबरिया चैनलों ने उनके दिमाग में तालिबान की ऐसी शक्ल बना दी कि उनको लगता है कि पूरे विश्व पर तालिबान काबिज हो जाएगा. एक महीने तक मुझे तालिबान तालिबान शब्द ने पका दिया. अगर घर में कोई रिश्तेदार भी आता तो पापा जी उनको तालिबान की कहानी सुनाने बैठ जाते, कभी कभी तो नेताओं पर क्रोधित होकर कहते साले तालिबानी भारती नेताओं को क्यों नहीं मारते..मैंने उनको बताया कि भारत में भी तालिबान है बस उसका नाम नक्सलवाद है.

गुरुवार, मार्च 19, 2009

जब यारों के लिए लिखे प्रेम पत्र

वो दिन बहुत याद आते हैं, जब हम सब दोस्त मिलकर एक घर में एकत्र होते थे और पढ़ा करते थे, पढ़ने वाले तो दो ही थे, बाकी तो मौज मस्ती करने के लिए आते थे. शाम को रोटी खाने के बाद दूध पीकर घर से पढ़ाई का बहाना बनाकर जल्दी भागना मुझे याद है, हम सब मेरे एक दोस्त के यहां एकत्र होते थे, उनके बाहर वाले घर में जहां पर होती थी बस हमारी मनचलों की टोली. हंसना, बातें सुनाना और कभी कभार गंभीरता से पढ़ना हमारी रातचर्या में शामिल था.
उस घर में पहले मैं और मेरा एक अन्य दोस्त पढ़ते थे, जो जट्ट सिख परिवार से संबंध रखता था, धीरे धीरे हमारे एक साथ पढ़ने के बात मेरे अन्य दोस्तों तक पहुंच गई, और उन्होंने भी वहां पर आना शुरू कर दिया. उनको घर से मंजूरी मेरे नाम के चलते मिल गई, क्योंकि मेरे दोस्तों के अभिभावक जानते थे कि हैप्पी ( लेकिन उनके अभिभावक मुझे पंडितों का लड़का कहकर ही संबोधन करते थे) पढ़ने लिखने में तेज है. सच कहता हूं, जब तक हम दो थे तो ठीक था, लेकिन जब हमारी संख्या बढ़ते बढ़ते पांच छ: हो गई, तब मौज मस्ती ने जोर पकड़ना शुरू कर दिया. हम सबने 9वीं कक्षा अच्छे नंबरों से पास कर ली, नतीजियों ने मां-बाप का विश्वास बढ़ा दिया कि बच्चे एक साथ पढ़ते हैं तो अच्छे नंबर लेकर आते हैं, लेकिन वो हमारी मौज मस्ती से अनजान थे.
दसवीं कक्षा में होते ही, एकदम से सब को प्रेम का कीड़ा काटना शुरू हो गया, एक लड़की हमारे स्कूल में एक शहर से आई थी, जो बहुत ज्यादा शहरी किस्म की थी, वो जिस शहर से आई थी, वहां ज्यादातर लोग पढ़े लिखे थे, ज्यादा शहरी थे. लेकिन अब वो गांव में आ गई थी, मगर वारिस शाह के कहने अनुसार आदतें कभी नहीं जाती, आदमी मर जाता है, उस लड़की ने आते ही कक्षा में लड़कों से दोस्ती रखने के परंपरा शुरू की, उसने अपने ढंग से सब लड़कियों के दिल की बात जानने के लिए वोटिंग रख दी, वो देखना चाहती थी कि कौन सी लड़की किस लड़के को पसंद करती है. लड़कियों में ऐसा हुआ है, ये बात मेरे दोस्त की गर्लफ्रैंड के मार्फत हम तक पहुंच गई, जो कई लड़कों की गर्लफ्रैंड रह चुकी थी.
शहरी लड़की के पीछे सब दीवाने थे, मुझे छोड़कर, सच है,, कसम से बिल्कुल सच, क्योंकि वो उस तरह की लड़की नहीं थी, जो मुझे पसंद आए या मेरी रातों की नींद चुरा ले. अब उसको पटाने के लिए लड़कों में होड़ सी लगी थी, सब एक दूसरे से सुंदर बनाकर आने लगे, ऐसे में हम सब दोस्तों ने मिलकर एक लड़के को कहा कि वो उससे प्यार करती है, पहले तो उसको यकीन नहीं हुआ, लेकिन एक दिन आधी छुट्टी वाले दिन किसी काम से वो लड़की उस लड़के के पास आई. बस फिर क्या था, हमने उसको अहसास करवाया कि वो उससे प्यार करती है, लेकिन मुझे पता था कि वो किसी और लड़के को पसंद करती है, क्योंकि उस लड़के के दोस्त मेरे साथ कबड्डी खेलते थे.
अब उस महोदय को बात सच लगने लगी, उसने कहा हैप्पी तुम मेरे दोस्त हो, मैंने बेशक, तो उसने कहा के मेरे लिए एक प्रेम पत्र लिखो, मैं उसको देना चाहता हूं. जैसा तैसा आता था, मैंने लिखकर उसको थमा दिया. लेकिन वो तीन दिन तक जेब में पाकर इधर उधर घूमता रहा, एक दिन मैंने कहा, चल यार मैं ही तेरी बात करवा देता हूं, क्योंकि लड़कियों में मेरी इमेज कुछ अच्छी थी, क्योंकि मैं एक दो प्यार प्रस्ताव ठुकरा चुका था. एक तो नौवीं कक्षा में और एक इन पलों से कुछ दिन पहले, मैंने आधी छुट्टी के वक्त उसको बुलाया, वो मेरे पास आई, तो मैंने कहा ये आपसे कुछ बात कहना चाहता है, वो बिंदास बोली बोलो (उसका नाम लेकर)...वो बेचारा पसीनों पसीनी हो गया, और बोला कुछ नहीं, वो ऐसे ही मेरी तरफ देखकर चली गई. उसके बाद मेरे दो और दोस्तों ने रात को प्रेम पत्र लिखवाए, एक महोदय का प्रेम पत्र तो कपड़ों की धुलाई के साथ ही धुल गया.
दरअसल, उसने मुझे प्रेम पत्र लिखाकर अपनी पेंट में डाल दिया, ताकि मौका मिलते ही उसको थमा देगा, लेकिन गांव में प्यार का शब्द कहते ही जुबां होंठ एवं पूरा शरीर थर्राता है, तो प्रेम पत्र कोई कैसे ऐसे पकड़ा देता..कुछ दिन वो प्रेम पत्र लेकर जेब में घूमता रहा और एक दिन पेंट में घर भूल गया और मां ने कपड़ों के साथ उसको धो दिया. इसके अलावा अन्य दोस्तों के लिए भी मैंने प्रेम पत्र लिखे, लेकिन किसी में दम नहीं था कि वो आगे पहुंचा सके, और मैं खुद के लिए लिखता नहीं था, क्योंकि घर की स्थिति और बापू की लठ अक्सर मुझे रोक देती थी. वैसे दिल लुटाने वालों की कमी न थी. आगे बताऊंगा...तब तक के लिए अलविदा...

शनिवार, मार्च 14, 2009

मेरे गांव का 'निराला बीच'

गोवा के बीच कैसे हैं या फिर पांडुचेरी के समीप बना खास विदेशियों के लिए एक बीच कैसा है. मैं नहीं जानता, क्योंकि कभी जाने का मौका ही नहीं मिला. इन बीचों के बारे में सुनने को अक्सर मिल जाता है क्योंकि इन बीचों पर विदेशी महिला पर्यटकों के साथ सामूहिक बलात्कार की खबरें, जो आती जाती रहती हैं. और बीचों पर पैसे खर्च कर कैसा आनंद मिलता है, वो पता नहीं. लेकिन हां, एक बीच मुझे पता है, जो गर्मियों में अक्सर भरा मिलता था. जो किसी भी जात धर्म नसल के लिए वर्जित नहीं. जहां पर सब नसल के लोग आते हैं, हर वर्ग, हर उम्र के. कभी कभी तो बाप बेटे एक साथ भी मौज मस्ती करते हुए मिल जाते थे. आप सोच रहे होंगे, ऐसा कौन सा बीच है. है मेरे दोस्त, मेरे गांव का बीच. मुझे लगता है कि ज्यादातर गांव में मेरे गांव जैसे बीच आम मिल जाएंगे. बस नजरिए की बात है. मेरे गांव के बस अड्डे से करीबन आधा किलोमीटर दूर एवं मेरे खेतों के बिल्कुल साथ से एक नहर बहती है, जो करीबन 15 फुट गहरी है, जिसका पानी आसमानी रंग का दिखता है. इसके साथ कच्चे रास्ते हैं, जो खेतों को मुख्य सड़क से जोड़ते हैं. इन कच्चों रास्तों से हर रोज दर्जनों ट्रैकटर ट्रालियां बैल गाड़ियां गुजरती हैं. वाहनों के आवागामन से इन कच्चे रास्तों की मिट्टी डरमीकूल से भी ज्यादा मुलायम हो जाती है, एक दम पाउडर के माफिक. जब सूर्यदेव जून जुलाई में जोरों की गर्मी बरसा रहा होता है एवं पसीना पूरे शरीर को ऐसे तर-ब-तर कर देता है, जैसे नए सीमेंट के बने मकान को व्यक्ति पानी छिड़क कर तर-ब-तर करता है. ऐसे मन को राहत देने लिए गांववासियों को पेड़ों की ठंडी छाया के बाद नहर याद आती है. जिसके शीतल जल में डुबकी लगाकर ठंड का अहसास होता है एवं गर्मी से निजात मिलती है. नहर का पानी गर्मियों में भी इतना ठंडा होता है कि एक घंटा नहाने के बाद आपको ठंड लगने लग जाएगी. शरीर में ठंडे पानी के चलते घुस गई ठंड को मारने के लिए भट्ठी पर रखे दानों की तरह तिलमिला रही कच्चे रास्तों की पाउडर सी मुलायम मिट्टी पर बिंदास लोटना, सच में बहुत आनंदमयी होता है. कुछ देर इन रास्तों की पाउडर सी मुलायम मिट्टी पर लोटना और फिर दौड़ते दौड़ते नहर के ठंडे पानी में कूद जाना. इस दौरान जो आनंद आता है, शायद वो आनंद किसी और बीच पर तो न आएगा. कोई फालतू का खर्च नहीं, बस मौजां ही मौजां..

रविवार, मार्च 08, 2009

बस याद है एक होली...

हरियाणा के रतिया शहर की बात है....जब घर में से रंग उठाकर मजाक मजाक में अपनी भाभी पर डाल दिया, जिसकी उम्र समय समय करीबन 27 की होगी, और मेरी करीबन दस ग्यारह की. उसके बाद करीबन सुबह ग्यारह बजे से शाम चार बजे तक वो मुझ पर रंग गिराती रही, क्योंकि उनकी होली के चलते पूरी तैयारी थी. इस दिन भाभी देवर एक दूसरे पर रंगों की इस तरह बौछार करते हैं, जैसे सरहद पर खड़े नौजवान युद्ध के समय एक दूसरे पर गोलियां की, पर फर्क इतना वहां देश की सुरक्षा को लेकर उनके मन जज्बा होता है, लेकिन यहां पर मन में त्यौहार की खुशी, उल्लास होता है. उस दिन शाम चार बजे रंग फेंकने पर विराम लगाकर मैंने नल के नीचे स्नान किया. इस होली के सिवाए शायद मुझे कोई भी होली याद नहीं, पिछले दो साल तो वेबदुनिया में ही गुजर गए, पता ही नहीं चलता कब गुलाल हवा में उड़कर मिट्टी पर गिरकर मिट्टी को अपने रंग में रंग लेता है. इससे पहले की करीबन पांच होलियां घर से निकलकर रंगों से बचते बचाते ऑफिस जाने में निकल गईं. इससे पहले में गांव में था, वहां होली से बचना बहुत जरूरी होता था, क्योंकि वहां होली रंगों से नहीं बल्कि इंजन से निकले काले तेल, तवे की कालस, गोबर के पानी घोल से, गलाल तो कहीं कहीं समझदार बुजुर्ग लोगों के हाथों में नजर आता था. उक्त चीजों के बरसे के भी कारण थे, कि जैसे को तैसा...इतने खतरनाक रंग होने के बावजूद भी होली के दिन पूरे गांव में उल्लास रहता था, पिचकरी तो कोई इस्तेमाल नहीं करता था, सब छतों से पानी की बाल्टियां गिराते थे. वो दिन निकल गए, जिन्दगी कामों में उलझकर त्यौहारों से दूर हो गई. इस बार तो इंदौर शहर के हर चौराहे, मोड़ पर अखबारों पर एक लाइन लिखी मिलती है, रंगों से नहीं इस बार खेलो तिलक होली..तिलक लगाने से होली का वो मजा तो नहीं आता, जो रंग बरसाने से आता है, एक दूसरे के चेहरे पर गुलाल लगाने से आता है. जब तक रंगों में भीगे नहीं तो होली का क्या मजा ? जैसे दीवाली पर पटाखों की आवाज कम होती जा रही है, शायद अब होली भी केवल एक माथे पर टीका लगाने तक सीमत होकर रह जाएगी. आने वाले सालों में पैदा होने वाले बच्चे जब अमिताभ की आवाज में रेखा और अमित पर फिल्माए गए 'रंग बरसे, भीगे चुनरवा' गीत को देखेंगे तो अपने अभिभावकों से जरूर पूछेंगे कि होली इस तरह की होती थी या जो आज मनाई जा रही है इस तरह की ?

रविवार, फ़रवरी 22, 2009

आखिर मिला ग्रीन सिग्नल

शनिवार की रात को करीबन पौने दस बजे उसकी (मेरी पत्नी) बस गंगवाल बस स्टैंड से रवाना होनी थी और वो शादी के खुलासे के बाद पहली बार अपने घर जा रही थी, क्योंकि कुछ दिन पहले मेरे ससुर जी का फोन आया था और बोले थे कि घर में हवन रखा है, अगर तुम आओ तो अच्छा है, ऐसा अपनी बेटी से कहा उन्होंने. इसके साथ उन्होंने ये भी कहा क्या हैप्पी आने देगा, तो उसने फटाक से कहा कि वो तो बहुत बार कह चुका है, लेकिन मेरा मन नहीं कर रहा था क्योंकि कहीं आप मेरे आने से गुस्से न हो जाएं. उन्होंने कहा कि फिलहाल मैं मुम्बई में हूं और रविवार को तुमसे पहले घर पहुंच जाउंगा. शनिवार को वो घर के लिए रवाना हुई, लेकिन बस कमबख्त एक घंटे की देरी से चली, जिसके चलते हमको फिर घर वापस आना पड़ा. एक घंटे बाद हम फिर बस स्टैंड गए और बस आ गई थी, वो हंसते हंसते घर के लिए रवाना हो गई. सच पूछो तो घर वापसी किसे नहीं अच्छी लगती और खासकर उसको जिसने नौ माह से अपने घर के दर्शन न किए हों, जिसमें उसने बचपन गुजारा हो, जहां मां पिता की डांट सुनी और उनके प्यार के पालने में झूटे लिए हों. जिस घर में भाईयों और बहनों के साथ मस्ती में हंसते खेलते दिन गुजारे हों. रविवार की सुबह साढ़े नौ बजे के आस पास उसका फोन आया और बोली. बस कुछ मिनटों बाद मैं घर में प्रवेश कर जाऊंगी और तुम फोन मत करना क्योंकि घर में पूजा चल रही है, और मुझे जल्दी से तैयार होना है. मैंने कहा ठीक है बाबा, मैं कबाब में हड्डी क्यों बनूं, नौ महीनों बाद एक बेटी अपने माता पिता से मिलने जा रही हैं. मुझे इंतजार था कि वो घर पहुंचने बाद भी मौका पाकर फोन करे, सो उसने किया और कुछ की खबर सुनाई कि पिता के साथ साथ मां ने भी आशीर्वाद दे दिया. उसका फोन आने से पहले स्थिति पीली बत्ती की तरह थी, पता नहीं था कि इसके बाद बत्ती हरी हो गई या लाल. बस इंतजार था, अगले इशारे का. अब मां का आशीर्वाद मिल गया. मानो तो फिल्म सेंसर बोर्ड से पास हो गई, लेकिन देखना है कि विरोध करने वाले तो नहीं प्रभावित करेंगे.

गुरुवार, फ़रवरी 19, 2009

....वो खुशी खुशी लौट आए

आज बुधवार का दिन है, और चिंता की चादर ने मुझे इस कदर ढक लिया है, जैसे सर्दी के दिनों में धूप को कोहरा, क्योंकि आते शनिवार को मेरी पत्नी शादी के बाद पहली बार मायके जा रही है, और वादा है अगले बुधवार को लौटने का. तब तक मेरा इस चिंता की चादर से बाहर आना मुश्किल है. मुझे याद है, जब वो आज से एक साल पहले शादी करने के बाद अपने मायके गई थी, लेकिन आज और उस दिन में एक अंतर है, वो ये कि तब हमने अपनी शादी से पर्दा नहीं उठाया था, और घरवालों की नजर में वो विवाहित नहीं थी. हां, मगर उसके घरवाले ये अच्छी तरह जानते थे कि इंदौर में उसका मेरे साथ लव चल रहा है. वो इंदौर से खुशी खुशी अपनी सहेली की शादी देखने के लिए दिल में लाखों अरमान लेकर निकली, लेकिन जैसे ही वहां पहुंची तो अरमानों पर गटर का गंदा पानी फिर गया. वो एक रात की यात्रा करने के बाद थकी हुई थी और थकावट उतारने के लिए उसने स्नान किया. अभी वो पूरी तरह यात्रा की थकावट से मुक्त नहीं हुई थी कि अचानक उसके सामने एक अजनबी नौजवान खड़ा आकर खड़ा हो गया, जो उसके मम्मी पापा ने उसको देखने के लिए बुलाया था. और जैसे ही उसको पता चला कि वो नौजवान उसको देखने के लिए आया है. वो लाल पीली हो गई, शायद उसी तरह जो उसका रूप मैं भी कभी कभी देखता हूं, उसने उस नौजवान को कहा कि मुझे तुम्हारे बारे में नहीं बताया गया.इस घटनाक्रम के बाद युवक तो वहां से चला गया, लेकिन घर में गुस्सा नफरत और आंसू आ गए. घर का पूरा माहौल ही बदल गया, वो अपने ही घर में कैदी हो गई, अजनबी हो गई और अकेली हो गई. उसके इस तरह के स्पष्ट जवाब से परिवारों को इस कदर कष्ट पहुंचा है कि उसके मम्मी पापा ने उसने बात बंद कर दी. इतना ही नहीं उसको घर से बाहर जाने की भी आज्ञा नहीं थी, जैसे हिन्दी फिल्मों में आम होता है. वो अपनी उस सहेली की शादी में भी नहीं जा पाती, जिसकी शादी में जाने लिए वो इंदौर से निकली थी. कुछ दिन उसने वहां रो-धोकर गुजारे, लेकिन पिता का दिल तो पिता का होता है, बेटी को तिल तिलकर मरते वो कैसे देखते. जिससे उन्होंने नाजों से पला था. उन्होंने बिटिया की जिद्द के आगे घुटने टेकते हुए उसको इंदौर आने के लिए आज्ञा दे दी और वादा किया कि वो उस लड़के से मिलने आएंगे, जिसको पसंद करती है यानी मुझे. जैसे ही वो जहां पहुंची तो मुझे पता लगा कि उसने पिता को सच नहीं बताया. फिर मैंने एक दिन साहस करते हुए मोबाइल किया और बोल दिया कि मैंने आपकी बेटी से शादी कर ली है. बेशक मेरा इस तरह उनको बताना किसी सदमे से कम न होगा. लेकिन मेरा बताना लाजमी था क्योंकि वो मुझसे मिलने के लिए आने वाले थे, ऐसे में लाजमी था कि वो सच्चाई से अवगत हों. उसके कुछ दिनों बाद वो इंदौर आए, हमारे बीच दो दिन तक तर्क वितर्क होते रहे, उन्होंने उसको को अपने साथ लेकर जाने का हरसंभव प्रयास किया, लेकिन वो अटल रही अपनी बात पर, अगर आप इसको अपनाते हो तो मैं चलती हूं, नहीं तो नहीं. वो रिश्ता तोड़कर चले गए, आखिर खून के रिश्ते कभी कहने से टूटे हैं जो टूटेंगे. आज एक साल बाद उन्होंने उसको को सामने से आने के लिए कहा है, उनकी बोलचाल में बदलाव है, लेकिन ऐसे में मन का डरना लाजमी है क्योंकि माता पिता को बेशक इस शादी से एतराज न हो, लेकिन समाज की नफरत का जहर कहीं हंसते बसते घर को बर्बाद न कर दे. फिलहाल दुआ करता हूं कि पिछली बार की तरह इस बार भी वो खुशी खुशी मेरे पास लौट आए, और हिन्दी फिल्मों की तरह इस प्रेम कहानी की भी हैप्पी एंडिंग हो..उसको इस लिए भेज रहा हूं, मुझे अपने ससुर पर भरोसा है, और खुद के प्यार पर, इसके अलावा मेरा मानना है कि डर से जितना जल्दी आमना सामना हो जाएं उतना अच्छा है।
जब मुझे प्यार हुआ...
http://liveindia.mywebdunia.com/2008/08/02/1217653198185.html?

मंगलवार, फ़रवरी 17, 2009

...लड़का होकर डरता है

बात है आज से कुछ साल पहले की, जब मैं शौकिया तौर पर अपने एक बिजनसमैन दोस्त के साथ रात को मां चिंतपूर्णी का जागरण करने जाया करता था और आजीविका के लिए दैनिक जागरण में काम करता था। एक रात उसका फोन आया कि क्या हैप्पी आज जागरण के लिए जाना है? मैंने पूछा कहां पर है जागरण?, तो उसने कहा कि हरियाणा की डबवाली मंडी में है, जो भटिंडा शहर से कोई 20 30 किलोमीटर दूर है. मैंने आठ बजे तक सिटी के तीन पेज तैयार कर दिए थे, और एक पेज अन्य साथी बना रहा था. मैंने अपने ऑफिस इंचार्ज को बोला सर जी मैं जा रहा हूं. एक पेज रह गया वो बन रहा है. तो उन्होंने हंसते हुए कहा, क्या जोगिंदर काका के साथ जा रहा है, मैंने कहा हां जी. इतने में जोगिंदर ने हनुमान चौंक पहुंचते ही कॉल किया. मैं तुरंत ऑफिस से निकला और हनुमान चौंक पहुंचा, वहां से एक गाड़ी में बैठकर मैं डबवाली के लिए रवाना हुआ. पौने घंटे के भीतर हम सब जागरण स्थल पर पहुंच गए और वहां पर मां के भगत हमारा इंतजार कर रहे थे कि कब भजन मंडली वाले आएं और जागरण शुरू करें. लेकिन पहले पेट पूजा, फिर काम कोई दूजा. इस लिए हम सबसे पहले छत पर पहुंचे, जहां पर खाना सजा हुआ था. हमने पेट पूजा करने के बाद स्टेज संभाली. हर बार की तरह इस बार भी जोगिंदर काका ने जागरण का आगाज अपनी अपनी प्यारी प्यारी मनमोहनी बातों से की. और जागरण का श्रीगणेश किया. भगती रंग में रंगे हुए हमको पता ही नहीं चला कि कब सुबह के दो बज गए और दो बजे घरवालों ने प्रसाद एवं चाय बांटनी शुरू की. सब चाय एवं भुजिए बदाने का आनंद ले रहे थे, मैं पानी पीने के लिए अंदर गया तो एक लड़की ने कहा कि तुम्हारा फोन नंबर क्या है. मैं हैरत में पड़ गया, उसकी उम्र ब-मुश्किल 17 की होगी. गोल मटोल चेहरा बेहर प्यारी सूरत॥तो स्वाभिक था कि मैं उसको अपना मोबाइल नंबर देता. मैंने जोगिंदर से पैन लेकर एक कागज के टुकड़े पर नंबर लिखा एवं फिर अंदर गया और कागज का टुकड़ा उसकी तरफ फेंका. इसके बाद जो उसकी जुबां से बोल निकले..आज भी मुझे याद हैं..वो बोली लड़का होकर डरता है. उसके बाद आज तक न तो उसका फोन आया और नाहीं कभी मुलाकात हुई..उसके बाद एक बार उनके घर जाना हुआ था, तो वहां जोगिंदर ने बात निकाल ली, उसको पता था. तो वहां उपस्थित लड़की ने बोला..वो उसकी सलेही थी. जो आजकल कहीं दूसरे शहर में रहती हैं. लेकिन उस लड़की एक बात आज भी याद है वो है..लड़्का होकर डरता है..

..जब भागा दौड़ी में की शादी


आज से एक साल पहले, इस दिन मैंने भागा दौड़ी में शादी रचाई थी, अपनी प्रेमिका के साथ. सही और स्पष्ट शब्दों में कहें तो आज मेरी शादी के पहली वर्षगांठ है. आज भी मैं उस दिन की तरह दफ्तर में काम कर रहा हूं, जैसे आज से एक साल पहले जब शादी की थी, बस फर्क इतना है कि उस समय हमारा कार्यलय एमजी रोड स्थित कमल टॉवर में था, और आज महू नाका स्थित नईदुनिया समाचार पत्र की बिल्डिंग में है. आप सोच रहे होंगे कि भागा दौड़ी में शादी कैसे ? तो सुनो..शादी से कुछ महीने पहले मुझे भी हजारों नौजवानों की तरह एक लड़की से प्यार हो गया था और हर आशिक की तमन्ना होती है कि वो अपनी प्रेमिका से ही शादी रचाए और मैं भी कुछ इस तरह का सोचता था. लेकिन हमारी शादी को आप समारोह नहीं, बल्कि एक प्रायोजित घटनाक्रम का नाम दे सकते हैं. मुझे और मेरी जान को लग रहा था कि शादी के लिए घरवाले नहीं मानेंगे, इस लिए हम दोनों ने शादी करने का मन बनाया, क्योंकि कुछ दिनों बाद उसको घर जाना था, और उधर घरवाले भी ताक में थे कि अब बिटिया घर आए और शादी के बंधन में बांध दें.क्योंकि उनको मेरे और मेरी प्रेमकहानी के बारे में पता चल गया था. इसकी भनक हमको भी लग गई थी, इस लिए हम दोनों ने पहले कोर्ट से कागजात तैयार करवाए और फिर उनको आर्य मंदिर में देकर शादी की तारीख पक्की की. मेरा तो मन था कि शादी 14 तारीख को करें, लेकिन श्रीमति ने कहा कि नहीं मेरी सहेली ने कहा है 16 का महूर्त शुभ है. मैंने पूरा दिन आफिस में कोहलू के बैल की तरह काम किया और फिर भागा भागा घर गया. वहां से तैयार बयार होकर पैदल उसकी गली से होते हुए इंडस्ट्री बस स्टॉप पहुंचा, जहां से बस पकड़ी और ब-मुश्किल आर्य मंदिर पहुंचा. शायद मैं पहला दुल्हा हूंगा, जिसके बाराती भी देर से आए और दुल्हन भी ऑटो रिक्शा में आई. इस मौके पर एक बात दिलचस्प थी, वो ये थी कि हम सब अलग अलग धर्मों एवं राज्यों से थे. मैं पंजाबी, पत्नी गुजराती, यार पंजाबी, गुजराती, बंगाली, उड़िया, मध्यप्रदेशी आदि. हम सब हम उम्र थे, सब खुश थे, एक दो को छोड़कर, क्योंकि उनको मेरी तरह ये चोरी छुपे की शादी अच्छी नहीं लग रही थी. हमने शादी सिर्फ ये सोचकर की थी कि अगर घरवाले मान जाते हैं तो हम दोनों दूसरी बार शादी कर लेंगे, वरना हम कोर्ट के मार्फत जाकर प्यार को बचा लेंगे. लेकिन शादी के एक महीने बाद हमने शादी का खुलासा कर दिया और एक साथ रहने लग गए. मेरे घरवालों ने तो उसकी वक्त अपना लिया था, लेकिन मेरे सुसराल वालों ने कुछ हद तक तो अपना लिया, लेकिन सस्पेंस अभी भी कायम है...बाकी सब ठीक है. लड़ते झगड़ते, रूठते, मनाते प्यार करते एक साल पूरा कर लिया.

रविवार, फ़रवरी 15, 2009

वेलेंटाईन डे पर सरप्राइज गिफ्ट

शनिवार को वेलेंटाइनज डे था, हिन्दी में कहें तो प्यार को प्रकट करने का दिन. मुझे पता नहीं आप सब का ये दिन कैसा गुजरा,लेकिन दोस्तों मेरे लिए ये दिन एक यादगार बन गया. रात के दस साढ़े दस बजे होंगे, जब मैं और मेरी पत्नी बहार से खाना खाकर घर लौटे, उसने मजाक करते हुए कहा कि क्या बच्चा चाकलेट खाएगा, मैं भी मूड में था, हां हां क्यों नहीं, बच्चा चाकलेट खाएगा. वो फिर अपनी बात को दोहराते हुए बोली 'क्या बच्चा चाकलेट खाएगा ?', मैंने भी बच्चे की तरह मुस्कराते हुए शर्माते हुए सिर हिलाकर हां कहा, तो उसने अपना पर्स खोला और एक पैकेट मुझे थमा दिया, मैंने पैकेट पर जेमस लिखा पढ़ते ही बोला. क्या बात है जेमस वाले चाकलेट भी बनाने लग गए. मैंने उसको हिलाकर देखा तो उसमें से आवाज नहीं आई और मुझे लगा क्या पता जेमस वाले भी चाकलेट बनाने लग गए हों, मैंने जैसे ही खोला तो चाकलेट की तरह उसमें से कुछ मुलायम मुलायम सा कुछ निकला, पर वो चाकलेट नहीं था बल्कि नोकिया 7210 सुपरनोवा, जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी. मुझे यकीन नहीं हो रहा था, लेकिन उसने कहा ये तुम्हारा गिफ्ट है, पर मुझे यकीन नहीं हो रहा था, फिर उसने मेरे हैरत से लबलब हुए चेहरे को देखते हुए कहा, हां, मैं आज दोपहर के वक्त लेकर आई थी, तभी तो आफिस आते आते दो घंटे लग गए थे, मैंने पूछा कितने का है, वो बोली 5600 का, फिर चुटकी लेते हुए बोली नहीं नहीं 5700 का, मैंने पूछा वो कैसे, वो बोली मोटर साइकिल को पुलिस की गाड़ी उठाकर ले गई थी, जिसका जुर्माना सौ रुपया भरना पड़ा, तो हुआ ना 5700..मैंने बोला हां-हां. वो बोली तुम को कैसा लगा, ये तोहफा पाकर. मुझे याद आ गई एक पुराने दिन की जब अचानक मौसी के लड़के ने कहा था, हैप्पी तुम्हारा लेख दैनिक जागरण के फिल्मी पेज पर लगा है, और मैं उस वक्त भैंस को चारा डाल रहा था, मैंने बोला भाई मजाक मत करो, मैंने ऐसा इस लिए कहा क्योंकि लेख प्रकाशित न होने से मैं पूरी तरह दुखी था, हर बार चापलूस लोगों का छप जाता था और मेरा नहीं. जब मैंने खुद अखबार खोलकर देखा तो मेरी खुशी का कोई टिकाना नहीं रहा, कारण था कि वो लेख मेरी उम्मीद खत्म होने पर लगा, क्योंकि उसको दो महीने हो गए थे जालंधर मुख्य दफ्तर में धूल फांकतेहुए. वो खुशी और पत्नी का सरप्रार्ज वेलेंटाईन गिफ्ट की खुशी एक जैसी थी. ये दिन मेरे सुनहरे दिनों में शुमार हो गया. और आपका वेलेंटाइन डे कैसे रहा जरूर लिखना दोस्तो...इंतजार रहेगा.