गुरुवार, मार्च 19, 2009

जब यारों के लिए लिखे प्रेम पत्र

वो दिन बहुत याद आते हैं, जब हम सब दोस्त मिलकर एक घर में एकत्र होते थे और पढ़ा करते थे, पढ़ने वाले तो दो ही थे, बाकी तो मौज मस्ती करने के लिए आते थे. शाम को रोटी खाने के बाद दूध पीकर घर से पढ़ाई का बहाना बनाकर जल्दी भागना मुझे याद है, हम सब मेरे एक दोस्त के यहां एकत्र होते थे, उनके बाहर वाले घर में जहां पर होती थी बस हमारी मनचलों की टोली. हंसना, बातें सुनाना और कभी कभार गंभीरता से पढ़ना हमारी रातचर्या में शामिल था.
उस घर में पहले मैं और मेरा एक अन्य दोस्त पढ़ते थे, जो जट्ट सिख परिवार से संबंध रखता था, धीरे धीरे हमारे एक साथ पढ़ने के बात मेरे अन्य दोस्तों तक पहुंच गई, और उन्होंने भी वहां पर आना शुरू कर दिया. उनको घर से मंजूरी मेरे नाम के चलते मिल गई, क्योंकि मेरे दोस्तों के अभिभावक जानते थे कि हैप्पी ( लेकिन उनके अभिभावक मुझे पंडितों का लड़का कहकर ही संबोधन करते थे) पढ़ने लिखने में तेज है. सच कहता हूं, जब तक हम दो थे तो ठीक था, लेकिन जब हमारी संख्या बढ़ते बढ़ते पांच छ: हो गई, तब मौज मस्ती ने जोर पकड़ना शुरू कर दिया. हम सबने 9वीं कक्षा अच्छे नंबरों से पास कर ली, नतीजियों ने मां-बाप का विश्वास बढ़ा दिया कि बच्चे एक साथ पढ़ते हैं तो अच्छे नंबर लेकर आते हैं, लेकिन वो हमारी मौज मस्ती से अनजान थे.
दसवीं कक्षा में होते ही, एकदम से सब को प्रेम का कीड़ा काटना शुरू हो गया, एक लड़की हमारे स्कूल में एक शहर से आई थी, जो बहुत ज्यादा शहरी किस्म की थी, वो जिस शहर से आई थी, वहां ज्यादातर लोग पढ़े लिखे थे, ज्यादा शहरी थे. लेकिन अब वो गांव में आ गई थी, मगर वारिस शाह के कहने अनुसार आदतें कभी नहीं जाती, आदमी मर जाता है, उस लड़की ने आते ही कक्षा में लड़कों से दोस्ती रखने के परंपरा शुरू की, उसने अपने ढंग से सब लड़कियों के दिल की बात जानने के लिए वोटिंग रख दी, वो देखना चाहती थी कि कौन सी लड़की किस लड़के को पसंद करती है. लड़कियों में ऐसा हुआ है, ये बात मेरे दोस्त की गर्लफ्रैंड के मार्फत हम तक पहुंच गई, जो कई लड़कों की गर्लफ्रैंड रह चुकी थी.
शहरी लड़की के पीछे सब दीवाने थे, मुझे छोड़कर, सच है,, कसम से बिल्कुल सच, क्योंकि वो उस तरह की लड़की नहीं थी, जो मुझे पसंद आए या मेरी रातों की नींद चुरा ले. अब उसको पटाने के लिए लड़कों में होड़ सी लगी थी, सब एक दूसरे से सुंदर बनाकर आने लगे, ऐसे में हम सब दोस्तों ने मिलकर एक लड़के को कहा कि वो उससे प्यार करती है, पहले तो उसको यकीन नहीं हुआ, लेकिन एक दिन आधी छुट्टी वाले दिन किसी काम से वो लड़की उस लड़के के पास आई. बस फिर क्या था, हमने उसको अहसास करवाया कि वो उससे प्यार करती है, लेकिन मुझे पता था कि वो किसी और लड़के को पसंद करती है, क्योंकि उस लड़के के दोस्त मेरे साथ कबड्डी खेलते थे.
अब उस महोदय को बात सच लगने लगी, उसने कहा हैप्पी तुम मेरे दोस्त हो, मैंने बेशक, तो उसने कहा के मेरे लिए एक प्रेम पत्र लिखो, मैं उसको देना चाहता हूं. जैसा तैसा आता था, मैंने लिखकर उसको थमा दिया. लेकिन वो तीन दिन तक जेब में पाकर इधर उधर घूमता रहा, एक दिन मैंने कहा, चल यार मैं ही तेरी बात करवा देता हूं, क्योंकि लड़कियों में मेरी इमेज कुछ अच्छी थी, क्योंकि मैं एक दो प्यार प्रस्ताव ठुकरा चुका था. एक तो नौवीं कक्षा में और एक इन पलों से कुछ दिन पहले, मैंने आधी छुट्टी के वक्त उसको बुलाया, वो मेरे पास आई, तो मैंने कहा ये आपसे कुछ बात कहना चाहता है, वो बिंदास बोली बोलो (उसका नाम लेकर)...वो बेचारा पसीनों पसीनी हो गया, और बोला कुछ नहीं, वो ऐसे ही मेरी तरफ देखकर चली गई. उसके बाद मेरे दो और दोस्तों ने रात को प्रेम पत्र लिखवाए, एक महोदय का प्रेम पत्र तो कपड़ों की धुलाई के साथ ही धुल गया.
दरअसल, उसने मुझे प्रेम पत्र लिखाकर अपनी पेंट में डाल दिया, ताकि मौका मिलते ही उसको थमा देगा, लेकिन गांव में प्यार का शब्द कहते ही जुबां होंठ एवं पूरा शरीर थर्राता है, तो प्रेम पत्र कोई कैसे ऐसे पकड़ा देता..कुछ दिन वो प्रेम पत्र लेकर जेब में घूमता रहा और एक दिन पेंट में घर भूल गया और मां ने कपड़ों के साथ उसको धो दिया. इसके अलावा अन्य दोस्तों के लिए भी मैंने प्रेम पत्र लिखे, लेकिन किसी में दम नहीं था कि वो आगे पहुंचा सके, और मैं खुद के लिए लिखता नहीं था, क्योंकि घर की स्थिति और बापू की लठ अक्सर मुझे रोक देती थी. वैसे दिल लुटाने वालों की कमी न थी. आगे बताऊंगा...तब तक के लिए अलविदा...

शनिवार, मार्च 14, 2009

मेरे गांव का 'निराला बीच'

गोवा के बीच कैसे हैं या फिर पांडुचेरी के समीप बना खास विदेशियों के लिए एक बीच कैसा है. मैं नहीं जानता, क्योंकि कभी जाने का मौका ही नहीं मिला. इन बीचों के बारे में सुनने को अक्सर मिल जाता है क्योंकि इन बीचों पर विदेशी महिला पर्यटकों के साथ सामूहिक बलात्कार की खबरें, जो आती जाती रहती हैं. और बीचों पर पैसे खर्च कर कैसा आनंद मिलता है, वो पता नहीं. लेकिन हां, एक बीच मुझे पता है, जो गर्मियों में अक्सर भरा मिलता था. जो किसी भी जात धर्म नसल के लिए वर्जित नहीं. जहां पर सब नसल के लोग आते हैं, हर वर्ग, हर उम्र के. कभी कभी तो बाप बेटे एक साथ भी मौज मस्ती करते हुए मिल जाते थे. आप सोच रहे होंगे, ऐसा कौन सा बीच है. है मेरे दोस्त, मेरे गांव का बीच. मुझे लगता है कि ज्यादातर गांव में मेरे गांव जैसे बीच आम मिल जाएंगे. बस नजरिए की बात है. मेरे गांव के बस अड्डे से करीबन आधा किलोमीटर दूर एवं मेरे खेतों के बिल्कुल साथ से एक नहर बहती है, जो करीबन 15 फुट गहरी है, जिसका पानी आसमानी रंग का दिखता है. इसके साथ कच्चे रास्ते हैं, जो खेतों को मुख्य सड़क से जोड़ते हैं. इन कच्चों रास्तों से हर रोज दर्जनों ट्रैकटर ट्रालियां बैल गाड़ियां गुजरती हैं. वाहनों के आवागामन से इन कच्चे रास्तों की मिट्टी डरमीकूल से भी ज्यादा मुलायम हो जाती है, एक दम पाउडर के माफिक. जब सूर्यदेव जून जुलाई में जोरों की गर्मी बरसा रहा होता है एवं पसीना पूरे शरीर को ऐसे तर-ब-तर कर देता है, जैसे नए सीमेंट के बने मकान को व्यक्ति पानी छिड़क कर तर-ब-तर करता है. ऐसे मन को राहत देने लिए गांववासियों को पेड़ों की ठंडी छाया के बाद नहर याद आती है. जिसके शीतल जल में डुबकी लगाकर ठंड का अहसास होता है एवं गर्मी से निजात मिलती है. नहर का पानी गर्मियों में भी इतना ठंडा होता है कि एक घंटा नहाने के बाद आपको ठंड लगने लग जाएगी. शरीर में ठंडे पानी के चलते घुस गई ठंड को मारने के लिए भट्ठी पर रखे दानों की तरह तिलमिला रही कच्चे रास्तों की पाउडर सी मुलायम मिट्टी पर बिंदास लोटना, सच में बहुत आनंदमयी होता है. कुछ देर इन रास्तों की पाउडर सी मुलायम मिट्टी पर लोटना और फिर दौड़ते दौड़ते नहर के ठंडे पानी में कूद जाना. इस दौरान जो आनंद आता है, शायद वो आनंद किसी और बीच पर तो न आएगा. कोई फालतू का खर्च नहीं, बस मौजां ही मौजां..

रविवार, मार्च 08, 2009

बस याद है एक होली...

हरियाणा के रतिया शहर की बात है....जब घर में से रंग उठाकर मजाक मजाक में अपनी भाभी पर डाल दिया, जिसकी उम्र समय समय करीबन 27 की होगी, और मेरी करीबन दस ग्यारह की. उसके बाद करीबन सुबह ग्यारह बजे से शाम चार बजे तक वो मुझ पर रंग गिराती रही, क्योंकि उनकी होली के चलते पूरी तैयारी थी. इस दिन भाभी देवर एक दूसरे पर रंगों की इस तरह बौछार करते हैं, जैसे सरहद पर खड़े नौजवान युद्ध के समय एक दूसरे पर गोलियां की, पर फर्क इतना वहां देश की सुरक्षा को लेकर उनके मन जज्बा होता है, लेकिन यहां पर मन में त्यौहार की खुशी, उल्लास होता है. उस दिन शाम चार बजे रंग फेंकने पर विराम लगाकर मैंने नल के नीचे स्नान किया. इस होली के सिवाए शायद मुझे कोई भी होली याद नहीं, पिछले दो साल तो वेबदुनिया में ही गुजर गए, पता ही नहीं चलता कब गुलाल हवा में उड़कर मिट्टी पर गिरकर मिट्टी को अपने रंग में रंग लेता है. इससे पहले की करीबन पांच होलियां घर से निकलकर रंगों से बचते बचाते ऑफिस जाने में निकल गईं. इससे पहले में गांव में था, वहां होली से बचना बहुत जरूरी होता था, क्योंकि वहां होली रंगों से नहीं बल्कि इंजन से निकले काले तेल, तवे की कालस, गोबर के पानी घोल से, गलाल तो कहीं कहीं समझदार बुजुर्ग लोगों के हाथों में नजर आता था. उक्त चीजों के बरसे के भी कारण थे, कि जैसे को तैसा...इतने खतरनाक रंग होने के बावजूद भी होली के दिन पूरे गांव में उल्लास रहता था, पिचकरी तो कोई इस्तेमाल नहीं करता था, सब छतों से पानी की बाल्टियां गिराते थे. वो दिन निकल गए, जिन्दगी कामों में उलझकर त्यौहारों से दूर हो गई. इस बार तो इंदौर शहर के हर चौराहे, मोड़ पर अखबारों पर एक लाइन लिखी मिलती है, रंगों से नहीं इस बार खेलो तिलक होली..तिलक लगाने से होली का वो मजा तो नहीं आता, जो रंग बरसाने से आता है, एक दूसरे के चेहरे पर गुलाल लगाने से आता है. जब तक रंगों में भीगे नहीं तो होली का क्या मजा ? जैसे दीवाली पर पटाखों की आवाज कम होती जा रही है, शायद अब होली भी केवल एक माथे पर टीका लगाने तक सीमत होकर रह जाएगी. आने वाले सालों में पैदा होने वाले बच्चे जब अमिताभ की आवाज में रेखा और अमित पर फिल्माए गए 'रंग बरसे, भीगे चुनरवा' गीत को देखेंगे तो अपने अभिभावकों से जरूर पूछेंगे कि होली इस तरह की होती थी या जो आज मनाई जा रही है इस तरह की ?