शुक्रवार, दिसंबर 11, 2009

मेरे पिता और पक्षी फीनिक्स


कुछ दिन पहले मैं अहमदाबाद के रेलवे स्टेशन पर खड़ा बठिंडा को जाने वाली रेलगाड़ी का इंतजार कर रहा था, मैं खड़ा था, लेकिन मेरी नजर इधर उधर जा रही थी, लड़कियों को निहारने के लिए नहीं बल्कि कुछ ढूंढने के लिए, जो खोया भी नहीं था। इतने में मेरी निगाह वहां पर स्थित एक किताब स्टॉल पर गई, मैं तुरंत उसकी तरफ हो लिया, जब पत्नी साथ होती है तब मैं खाने पीने के अलावा शायद किसी और वस्तु पर पैसे खर्च कर सकता हूं, इसलिए हर यात्रा के दौरान मुझे किताबें या मैगजीन खरीदने का शौक है। इस बार मैंने अपने इस सफर के लिए 'आह!जिन्दगी' को चुना, मैंने जब उसको खोला तो मैं सबसे पहले उस लेख पर गया, जो महान फुटबाल खिलाड़ी माराडोना पर लिखा गया था, इसको लेख को पढ़ते हुए मुझे मेरे पिता का अतीत याद आ गया, उनका संघर्ष याद आ गया।
वो माराडोना की तरह फुटबालर नहीं हैं, वे तो आम इंसान हैं। इस लेख में माराडोना की तुलना एक ऐसे पक्षी (फीनिक्स) के साथ की गई थी, जो अपनी ही राख से पुन:जीवित हो उठा है, इस तुलना ने मुझे मेरे पिता के संघर्ष के उन दिनों की याद दिला दी, जब वक्त ने कहा, "अब तो हेमराज खत्म हो गया", लेकिन वे फिर से इस कल्पित पक्षी की तरह खड़े हुए और जुट गए। इस लेख में माराडोना के बारे में लिखा था, लेकिन मुझे मेरे पिता का संघर्ष ही याद आ रहा था, मुझे लगा कि शायद इस लेख को मेरे लिए लिखा गया। मेरे पिता का जन्म एक बड़े पंडित परिवार में हुआ, लेकिन उनके पिता की बे-वक्ती मौत ने उनको दर दर की ठोकरें खाने पर मजबूर कर दिया, लालची लोगों ने उनका सोना(जायादाद) कौड़ियों का भाव खरीद लिया। खुद के गांव में रहकर काम करने की बजाय मामा के गांव चले गए, कई साल वहां रहे, लेकिन खुद के लिए कुछ नहीं, मामा के बच्चों के लिए कई एकड़ जमीन तैयार कर दी, जब जवान हुए तो हाथ में कुछ ही जमीन बची।

अब उस जमीं पर खेती शुरू की तो कुछ साल बाद मां को बेटे का मोह आने लगा, उन्होंने मेरे पिता को शहर बुला लिया, चलो तीनों भाईयों की तरह इसको भी सरकारी नौकरी पर अटक दें, लेकिन किस्मत देखो, तीन बार सरकारी नौकरी मिली और चली गई। सबको चिंता हो रही थी, अब क्या होगा, बच्चे बढ़े हो रहें और शहर में तो महंगाई बहुत ज्यादा है। लेकिन सरकारी नौकरी से ऊब चुके मेरे पिता ने अब पशु व्यापार शुरू कर दिया, घर में अच्छे पैसे आने लगे, लग रहा था कि अब दिन सुनहरे आ गए, बुरा वक्त टल गया, मगर बुरा वक्त कहां टलने वाला था, वो तो बड़ा हाथ मारने का इंतजार कर रहा था। मुझे आज भी याद है वो दर्दनाक हादसा, जिसमें एक ट्रक्टर, तीन दोस्त और कई भैंसे खोई मेरे पिता ने, उनकी भी टांग टूट गई थी। सारी कमाई इस हादसे ने छीन ली, और तो और कई महीनों के लिए बिस्तर पर लिटा दिया गया मेरे पिता को, टेंशन फिर से बढ़ गया।

कुछ महीनों बाद फिर से बिस्तर छोड़ा और निकल गए कुछ नए जुगाड़ की तरफ, उनको फिर से एक सरकारी नौकरी पर लगा दिया गया, लेकिन काम जमा नहीं, उन्होंने उसको ठोकर मार थी, बस फिर क्या? पूरे परिवार की बातों को अनसुना करते हुए चल दिए उस गांव की तरफ, जहां कभी उनकी जमीनें हुआ करती थी, और आस पास के गांवों में उनके पिता और दादा के नाम का डंका बजा करता था, लोग आज भी याद करते हैं मेरे दादा की घोड़सवारी को। इस गांव में सिर्फ सौ रुपए और एक दो महीनों का राशन लेकर पहुंचे मेरे पिता, शहर में चिंता थी कि अब इसका होगा क्या? इसको खेती के लिए वहां जमीं कौन देगा। लेकिन एक दरवाजा बंद होता है तो दूसरा खुलता भी है। इस गांव में मेरे पिता को उनके चचेरे भाई की जमीं 50-50 पर करने के लिए मिल गई और कुछ जमीं हमने ठेके पर ले ली। जो जमीं हिस्से (50-50) पर मिली थी, वो जमीं ठीक ठीक थी, लेकिन मेरे पिता की मेहनत ने उसको सोना बना दिया। जब वो सोने में तब्दील हो गई तो चचेरे भाई का दिमाग खराब हो गया, मन में लालच आ गया, वो हिस्से पर देने के बजाय ठेके पर देने की बात करने लगा, लेकिन उसने ठेका इतना बोला कि पूरे गांव में उतना ठेका किसी जमीं का न था।

हमने वो जमीं छोड़ दी, गुस्सा आ रहा था, लेकिन मेरे पिता की जिन्दगी में धोखे ही धोखे लिखें हैं, ये तो मैं अच्छी तरह जानता हूं। अगर वो जीवनी लिखें बैठे तो शायद ही कोई अपना होगा, जिसने उसके साथ धोखा न किया हो, शायद उन लोगों में मेरी मां सबसे पहले आएगी, जिसने अंतिम सांसों तक मेरे पिता को धोखा नहीं दिया। इसके बाद एक और जमीं हिस्से पर मिली, जो सोना होते हुए भी पित्तल के भाव बिक रही थी, इस जमीं का मालक एक सीधा सादा साधारण व्यक्ति था, जिसको दुनियादारी नहीं आती थी, बस नशा खिलाओ, जो मर्जी पाओ। उसकी पत्नी थोड़ी समझादार थी, उसने कहा कि अगर बाबा आप मेरे खेतों में काम करना चाहते हैं तो मुझे खुशी हो गई। शायद गांव छोड़ने से पहले हमको उस घर का भला करना ही था, ये मेरे गांव में अंतिम साल थे। मेरे पिता ने हां कह दिया, लेकिन लोग मुझे पकड़ पकड़ कह रहे थे, तेरे पिता को बोल, वो जमीं कचरा है, और कचरे में हीरे मोती नहीं मिलते। मेरे पिता मेरी कहां मानने वाले थे, वो मुझे और मजदूरों को लेकर जुट गए काम में, उनको विश्वास था कि वो इसको सोना बना देंगे, अगले साल वो ही हुआ, जो जमीं गांव के लोगों के लिए कचरा थी, वो आज सोना हो चली थी, सब को इंतजार था कि ये लोग जमीं कब छोड़ेंगे और हमको कब मिलेगी। सबको इंतजार था, मेरे द्वारा गांव छोड़ने का, क्योंकि मुझे अगर शहर में नौकरी मिल गई तो स्वाभिक है कि मेरे पिता मेरे साथ आएंगे। ऐसे में इस जमीं को वो लोग ठेके पर ले लेंगे, लेकिन खेत की मालिकन नहीं चाहती थी कि हम गांव छोड़कर जाएं, क्योंकि उसके घर में खुशियां फिर से लौट आई थी, उसके उतरे हुए चेहरे की रंगत फिर लौट आई थी, मगर मैं उस गांव में कैसे रुकता, मेरे पिता की जमीनें तो लोग खा चुके थे। ऐसे दूसरों के खेतों में मर मर कमाई करने से क्या होने वाला था।

मेरी मां की मौत के बाद मेरे पिता भी शहर आ गए, तीन साल पहले। वो यहां भी अपना ही काम शुरू करने वाले थे, लेकिन घर परिवार वालों ने कहा कि जो तुम्हारे पैसे हैं, वो तुम को खर्च ने के लिए नहीं मिलेंगे, क्योंकि तुम्हारी बेटी की शादी करनी बाकी है। अब वो फिर मुश्किल में आ गए, मामा ने उनको एक नौकरी पर लगवा दिया, जिसको लेकर मैंने एतराज जताया, वो नौकरी करने लायक नहीं थी, और तो और मामा ने यहां तक कह दिया कि मालक को मत बताना तुम मेरे जीजा हो। इस बात ने मेरे पिता के मन और दुखी कर दिया। फिर क्या, उनके भीतर का फीनिक्स फिर जिन्दा हो गया और अगले छ: महीनों में मेरे पिता ने अपना नया ट्रैक्टर ट्राली लाकर खड़ा कर दिया, जो अब चल रहा है।


8 टिप्‍पणियां:

Arshia Ali ने कहा…

आपके संस्मरण में आत्मीयता की गंध है, जो मानव मात्र की भावनाओं को सहज रूप में प्रेषित करती है।
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शानदार रही लखनऊ की ब्लॉगर्स मीट
नारी मुक्ति, अंध विश्वास, धर्म और विज्ञान।

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } ने कहा…

हिम्मते मर्दा मदद ए खुदा .

अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

kulavntji,
mata-pita maano sangharsh karne ke liye hi bane hote he, mujhe lagtaa he jo beta apne pita ke sangharsh ko yaad kartaa he aour jeevan ka raasta tay kartaa he vo sahi mayane me beta hota hota he. vese bhi ham apne pitaa ke liye aakhir kyaa kar sakate he, unke pero ki dhool ke barabar bhi ham nahi he..haa, pita ko pitaa manana unki seva karna..unke ateet ka dhyaan rakhna ek behatar putra hone ke sanket he...sachmuch kulvantji aap bahut bhagyashaali he jo ese jeevat vaale pita ke putra he.../
ishvar sukhi rakhe..meri shubhkamnaye

निर्मला कपिला ने कहा…

मेरी टिप्पणी कहाँ गयी?????????????????????
मैने बहुत बडी टिप्पणी दी थी। खैर अब इतना ही कह सकती हूँ कि संस्मरण दिल को छू गया। आशीर्वाद्

संजय भास्‍कर ने कहा…

LAAJWAAB KULWANT JI

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

प्रेरक संस्मरण है।आभार।

योगेन्द्र मौदगिल ने कहा…

Pitashri ki admya jivatata evm jijivisha ko naman....

निर्मला कपिला ने कहा…

दोबारा पढ़ा । बहुत प्रेरक व्यक्तित्व । शुभकामनाएं।