शुक्रवार, अगस्त 21, 2009

खून से लथपथ पिता जब घर पहुंचे

सुबह के चार बजे घर का दरवाजा किसी द्वारा खटखटाने की आवाज आई और मेरी मां दरवाजे की तरफ दौड़ी, क्योंकि आधी रात के बाद से वो मेरे पिता का इंतजार कर रही थी, जिसको ढूँढने के लिए मेरे परिवार के सदस्य गए हुए थे। ऐसे में अगर हवा भी दरवाजा खटखटा देती तो भी स्वाभिक था कि मेरी मां दरवाजे की तरफ इसी तीव्र गती से दौड़ती क्योंकि अचानक मांग का सिंदूर कहीं चल जाए तो साँसें भी अटक अटक आती हैं। ऐसा ही कुछ हाल था मेरी मां का उस दिन। मेरी मां ने जैसे ही दरवाजा खोला तो देखा के खून से लथपथ एक व्यक्ति खड़ा है, ये व्यक्ति कोई और नहीं मेरे पिता जी थे। शहर की गलियां पानी से भरी हुई थी तो मेरे पिता के कपड़े रक्त से। मां पिता की ये स्थिति देखते ही दंग रह गई, जैसे पांव से जमीं छू मंत्र हो गई हो, गले से जुबां ही गायब हो गई हो। मेरी मां को लगा आज या तो ये कैसी को मौत के घाट उतारकर आएं हैं या फिर आज किसी ने इनके शरीर को हथियारों के प्रहार से छलनी कर दिया। बिन शोर मचाए चुपचाप बाजूओं के सहारे मेरी मां पिता को कमरे के भीतर ले आई, यहां मैं और मेरी छोटी बहन घोड़े बेचकर सोए हुए थे।

एक सोच पर प्रतिबंध कहां तक उचित ?

जब मेरी मां ने पिता का कुर्ता उतारा तो उसकी आंखें खुली की खुली रहेगी। गले में सांसें अटक गई। अब तो मां पत्थर में तब्दील हो चुकी थी, क्योंकि पिता के शरीर की हालत देखते किसी की भी वो हालत हो सकती थी, जो मेरी मां की हुई। पिता के जिस्म पर एक नहीं दस ग्यारह जोक चिमटे हुए थे, जो शरीर से जुदा हुए लोथड़ों की तरह प्रतीत हो रहे थे। जोक तो एक भी बुरी, क्योंकि जोक इंसान का पूरा खून पी जाती है और मेरे पिता के शरीर पर दर्जन भर जोकें थी। मेरी मां ने हिम्मत जुटाते हुए सभी जोकों को एक एक कर उतारा..और जख्मों पर हल्दी तेल में लिप्त रूई के गोले रखे। अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर ऐसे मेरे पिता के साथ हुआ कैसे ?

बात कुछ इस तरह है कि उन दिनों हम बठिंडा शहर में रहते थे। हमारे पास ट्रैक्टर हुआ करता था जो ठेकेदारी के काम पर चलता था। और उन्हीं दिनों शहर में तीन से चार फुट तक पानी भर गया। शहर का पूरा जनजीवन अस्त व्यस्त हो गया। हमारे लिए जनजीवन अस्त व्यस्त होना कोई मायने नहीं रखता था क्योंकि हम बच्चे तो बारिश के पानी में कागज की नाव छोड़कर उसके डुबने का मंजर देखते थे। शहर को पानी के चुंगल से निजात दिलाने के लिए हमारे ट्रैक्टर को भी अन्य ट्रैक्टरों के साथ शहर का पानी नहर में फेंकने के लिए नहर किनारे लगा दिया गया। जहां एक तरफ गहरे गहरे खतरनाक खतान तो दूसरी तरफ बहती नहर। बीच में हमारा ट्रैक्टर चल रहा था। रात का समय था, तो पिता जी को पीने का शौक था। उस रात भी उन्होंने पी ली..जिसके बाद पता नहीं क्या हुआ? वो वहां से निकल गए।

जब रात को उनको देखने उनका एक अन्य साथी वहां पहुंचा तो देखा कि ट्रैक्टर चल रहा है, मगर हेमा कहीं नजर नहीं आ रहा तो उसने काफी आवाजें लगाई। सामने से कोई उत्तर नहीं आया और चारों ओर पानी फैला हुआ था। ऐसे में उसको लगा कि हेमा कहीं पानी में बह गया, वो व्यक्ति घर की तरफ दौड़ा। उसने मेरी मां और पूरे परिवार की नींद उड़ा दी। सब मेरे पिता को ढूंढने के लिए निकल गए। वो कहां किसी को मिलने वाले थे, सब उनको तीन चार फुट पानी में पैदल चलकर ढूंढ रहे थे और वो पता नहीं कहां कहां से होते हुए घर पहुंच गए। पर उनके शरीर पर लगी जोकें बयान करती थी कि वो मौत को मात देखकर आएं और खतानों के बीच से आएं हैं। जब सुबह बिस्तर से पिता जी उठे तो बोले मुझे क्या हुआ और ट्रैक्टर के पास कौन है? मेरी मां गुस्से में थी, उसने उस वक्त को चटपटा जवाब दिया जो मैं भूल गया शायद।

3 टिप्‍पणियां:

संगीता पुरी ने कहा…

रोंगटे खडी कर देने वाली घटना .. जीवन में ऐसी ऐसी घटनाएं भी घट जाती हैं .. और शुक्र भगवान का कि .. मनुष्‍य वैसी घटनाओं से भी जीत जाता है।

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

आपने तो मन और मानस दोनों को झकझोर दिया है। बाकी भी याद करके बतलाइयेगा।

निर्मला कपिला ने कहा…

ाज तुम्हारी मा के बारे मे पता चला तो और कुछ जानन्से की जिग्यासा बढी और ये पोस्ट सामने आ गयी देखा है कई लोगों के जीवन मे अनचाहे दुख पटा नहीं कहाँ से चले आते हैं और तुम्हारी मां शायद दुख सहन करने की ताकत खो बैठी थी निशब्द हूँ साहस नहीं है कुछ भी कहने का