लम्बे समय के बाद फिर से खुली खिडक़ी पर लौटा हूं। मुझे पता है कि आपको लोगों को मेरी अगली किश्त का इंतजार नहीं रहता, क्योंकि न तो मैं चेतन भगत हूं और न बिग अड्डा का अमिताभ बच्चन, एक साधारण भारतीय हूं, और कुछ लोगों की तरह मुझे भी डायरी लिखने का शौक है, पर सार्वजनिक रूप में, निजी नहीं। आज की किश्त में एक रेल यात्रा के बारे में बताने जा रहा हूं, जोकि मेहसाना से शुरू होती है और बठिंडा सिटी के रेलवे स्टेशन पर खत्म। मुझे पढ़ने का बहुत शौक है, लेकिन कोर्स की किताबें नहीं, बल्कि पत्रिकाएं व जानकारी देने वाले रोचक समाचार पत्रों के पन्ने। मैं शनिवार को जैसे ही मेहसाना के रेलवे स्टेशन पर पहुंचा तो मुझे वहां लगे ब्लॉक ने बताया दिया था कि गाड़ी आने में अभी एक घंटा बाकी है। इस एक घंटे को कैसे गुजारा जाए, इस पर मैंने बिल्कुल विचार नहीं किया, क्योंकि रेलवे स्टेशन में प्रवेश करते ही मेरी निगाह वहां स्थित बुक स्टॉल पर पड़ी, जहां पर बहुत सारी पत्रिकाएं व एक हिन्दी का न्यूजपेपर पड़ा था, जिसका नाम था राजस्थान पत्रिका, मैंने इस समाचार पत्र व दैनिक भास्कर की पत्रिका लक्ष्य को खरीदा, सच में दोनों पढ़ने के बाद लगा कि मैंने इस बार भी गलत जगह पैसे खर्च नहीं किए। लक्ष्य पत्रिका में भी पॉजिटिव थिंक की बातें लिखी हुई थी, और राजस्थान पत्रिका के मी डॉट नेक्सट में भी पॉजिटिव एटिट्यूड से संबंधित भरपूर जानकारी थी। दोनों को पढ़ते पढ़ते कम समय निकल गया पता ही नहीं चला। इतने में रेलगाड़ी प्लेटफार्म पर आ गई। मैं बैग उठाकर रेल गाड़ी की तरफ बढ़ा, लेकिन दिमाग इन दोनों चीजों में अभी भी मगन था। मैं एस सिक्स में घुसा और अपनी सीट नम्बर के पास गया था तो पता चला कि मेरी सीट एस सिक्स में नहीं और एस सेवन में है, मैं सॉरी बोलते हुए कोच से बाहर की तरफ दौड़ा और पहुंच गया अपनी सीट पर। मैं पूरी तरह चुपचाप, मानो जैसे में मौन धारण कर लिया हो। यह रिजर्वेशन कोच, मुझे जनरल कोच जैसा लग रहा था, क्योंकि मेरे जाने से पूर्व मेरी वाली सीट पर पांच जन बैठे हुए थे, जबकि सामने वाली सीटों पर छोटे छोटे बच्चे लेटे नींद का आनंद ले रहे थे। इस कोच सवार ज्यादा लोगों को माउंट आबू रोड़ उतरना था। एक व्यक्ति के मोबाइल पर गीत बज रहे थे, लेकिन मेरा दिमाग काम करना बंद कर चुका था। जो समाचार पत्र व पत्रिका रेलवे स्टेशन पर पढ़ी, उसमें एक बात थी कि चुनौतियों को देखकर घबराओ मत, उनका मुकाबला करो। यह परिस्थिति ऐसी थी, जिसको हैंडल करना जरूरी था, बिना किसी अन्य व्यक्ति को नुकसान पहुंचाए। मेरी निगाह मेरे सामने बैठी एक लडक़ी पर गई, जिसकी मोटी मोटी आंखों में काजल डाला हुआ था, वो बिल्कुल जब वी मेट की करीना जैसी नजर आ रही थी, लेकिन उसको भी वहीं तक जाना था जहां तक मेरी सीट पर बैठे लोगों को। वो अपने सामने बैठे एक व्यक्ति से बातें करने में मस्त थी, और बीच बीच में मुझे भी देख रही थी। वो निरंतर बोल रहा था, वह अलग अलग मुद्राओं में हां का संकेत देते हुए बातें सुन रही थी। मैं उसकी बदलती मुद्राओं को देखता रहा था, ताकि मेरे आस पास फैली अव्यवस्था पर मेरा ध्यान न जाए। कुछ घंटों के बाद माउंट आबू रोड़ आ गया, और रेलगाड़ी खाली हो गई एवं वो युवती भी उसी भीड़ केञ् साथ उतर गई। रेलगाड़ी खाली हुई एवं रोटी खाई और नींद का आनंद लिया। कुछ घंटों पश्चात गाड़ी फालना स्टेशन पर पहुंची और मैं घूमने के लिए थोड़ा नीचे उतरा तो आकर देखा मेरा बैग सीट के नीचे से निकालकर एक महिला ने अपने बैग वहां पर ठूंस दिए, मैंने अपना बैग अन्य जगह पर रख दिया। अब मेरी सीट के आस पास वाली छह सीटों पर पंजाबी गुजराती परिवार बैठा था, दोनों हिन्दी बोलना नहीं जानते थे, दोनों बातें करते एक दूसरे से लेकिन अपनी अपनी भाषा में। ऐसे में कुछ बातें समझाने के लिए मैं उनका ट्रांसलेटर बना, क्योंकि मेरा तालुक दोनों राज्यों से है। पंजाबी पूरी तरह जानता हूं तो गुजराती समझता हूं। धीरे धीरे सूर्य डूबता चला गया एवं अंधेरे की चादर फैलती चली गई। जोधपुर गाड़ी नौ बजे के करीब पहुंची। यहां पर एक यंग कपल हमारी सीटों के नजदीक पहुंचा। इस कपल के आने से मेरी उदासी भाग गई, जो मुझे कुछ कुछ पल बाद पकड़ रही थी। ऐसा नहीं कि यंग कपल में यंग लेडी मुझे अच्छी लग रही थी। इस यंग कपल के साथ एक छोटी सी उनकी बेटी थी, बिल्कुञ्ल रिदम जैसी। रिदम मेरी बेटी, जिसको नाना केञ् घर छोडक़र मैं पंजाब लौट रहा था। उसे बहुत ज्यादा मिस कर रहा था, उस बच्ची को देखकर मुझे रिदम याद आ रही थी, वो बच्ची बिल्कुञ्ल रिदम जैसी थी, लेकिन रिदम से पांच माह बड़ी। रिदम ने मेरे सफर पर निकलने से पहले खुद चलकर पांच फूट का सफर तय किया, जबकि राधिका बिंदास चल रही थी। रिदम की तरह राधिका ने भी अपने पापा को देर रात तक नहीं सोने दिया। वो उसको सुलाने की कोशिश करें तो वह रिदम की तरह ही चीखे। राधिका का बाप भी मेरी तरह उसको उठाकर रेलगाड़ी में घुमाने ले गया, ताकि कोई डिस्टर्ब न हो। एक चक्कर काटने के बाद राधिका करीबन सवा बारह बजे के करीब सो गई, तभी वहां टीटी आया, एवं 46 सीट पर सो रहे युवक से टिकट मांगा। वो टिकट दिखा रहा था कि इतने में दो अन्य यात्री टीटी केञ् पास आए एवं सीट देने का अनुरोध करने लगे, टीटी ने सख्ती से डांट फटकार लगाते हुए उनको वहां से भगा दिया एवं युवक की टिकट वापिस लौटते हुए सौ रुपए का नोट पकडक़र टीटी वहां से आगे बढ़ गया। कैञ्से खत्म हो सकता है भ्रष्टाचार, जिसकी जन्मदाता ही पब्लिक है। सोचते सोचते सो गया एवं सुबह उठा तो बठिंडा के बिल्कुल पास था। उठते ही निगाह सबसे पहले राधिका पर गई, जो धीमी आवाज में पापा वाली सीट पर खड़ी होकर मम्मी को उठने के लिए अनुरोध कर रही थी।
8 टिप्पणियां:
उफ़ इतना लिखा और कमेन्ट पोस्ट करते समय एरर शो हो गया.क्या करू?रिदम नाम है आपकी बेटी का.
इंदू गोस्वामी की प्रतिक्रिया तो दुष्ट एरर के कारण ध्वस्त हो गई थी।
अब एक बार फिर पूरा आर्टिकल पढूंगी रिदम, राधिका, करीना कपूर सबको पढूंगी और टीटी से मिलूंगी तभी व्यूज़ दे पाऊँगी वैसे.............. वैसे.............. दिल को छू गया' 'बहुत खूब लिखते आप' दो बार यूँ ही थोड़े लिखा जाता है दिल को छू गया' 'बहुत खूब लिखते!
आपको मिली राधिका और मुझे रिदम..साल भर बाद...जब इन्दौर आ रही थी तो बहुत खुश हुई थी, बहुत इन्तजार किया ..अब भी कर रही हूँ अब तो बड़ी हो गई होगी...फोटो देखना है.....याद मुझे भी आ रही है ...
Bhai
kulavant ab aap kee post niyamit roop se mil rahee hai
shukriya
ओह तुस्सी ग्रेट हो जी! एक ही साँस में पूरी पोस्ट पढ़ दी आपकी। आप तो हमारे ग्रुप के चेतन भगत हो और आने वाले समय में वह सब भी तुमको पढ़ेंगे। बहुत बढ़िया लिखा। थैंक्स फॉर सेंडिंग ऑन द मेल। कीप इट अप।
ट्रांसलेटर बन गया और मेरे बैग की जगह मैडम ने अपने बैग रख लिए। हा हा हा :)) 1 महीने सब्र कर रिद्धू भी मिलेगी। और सुन ससुराल में मजबूरी हो तो ही रहियो नहीं तो नहीं। मेरे को भी बोलता था ना खुद भी उसका पालन करना। अक्खा पंजाब की हाथ तेरे ही हाथ है हाँ...
तुहाड़ा विशाल
रेलगाड़ी में सफर करना कुछ ऐसा ही होता है। एक के बाद एक विचार मन में आते हैं जाते हैं।
आजकल ट्रेन में यही माहौल रहता है।
एक अरसे बाद आपको देख बेहद खुशी हुई .....
एक वर्ष पहले की पोस्ट भी पढ़ी जाब छूटने की ...
आपके मित्र विशाल जी का कमेन्ट भी देखा ...
मित्रता हो तो आप जैसी ....
और यह पोस्ट तो इतनी रोचक लगी की एक ही सांस में पढ़ गई ...
एक साल में लेखन में काफी परिपक्वता आ गई है ...
अधिक पढने का असार लगता है ....
:))
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