पिछले कई दिनों से उलझन में था, करूं या न करूं। दिल कहता था करूं और दिमाग कहता था छोड़ यार। वैसी ही स्थिति बनी हुई थी, जैसे प्रेमी को पहला पत्र लिखने के वक्त बनती है, कई कागद काले कर दिए, फिर फाड़कर फेंक दिए, ऐसे ही कई नाम लिखे और मिटा दिए, लेकिन कल रात एक मित्र की मदद करते हुए मैंने जो नाम ब्लॉग के लिए सोचा था,
शुक्रवार, मार्च 26, 2010
शुक्रवार, मार्च 19, 2010
स्लैमबुक और उसकी मानसिकता
कुछ दिन पहले बठिंडा से मेरे घर अतिथि आए थे, वो मेरे खास अपने ही थे, लेकिन अतिथि इसलिए क्योंकि वो मुझे पहले सूचना दिए बगैर आए थे, और कमबख्त इस शहर में कौएं भी नहीं, जो अतिथि के आने का संदेश मुंढेर पर आकर सुना जाएं। वो आए भी, उस वक्त जब मैं बिस्तर में था, अगर खाना बना रहा होता तो शायद प्रांत (आटा गूँदने का बर्तन) में से आटा तिड़क कर बाहर गिर जाता तो पता चल जाता कोई आने को है।
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