मुझे आज भी याद है, वो काला दिन, जब मेरी मां ने सरकारी अस्पताल के बिस्तर पर अपनी मां (मेरी नानी) की बांहों में दम तोड़ दिया था। उस दिन मेरी मौसी, मामी, मेरी नानी और मैं, गुलूकोज की बोतल का खत्म होने का इंतजार कर रहे थे, उस पर निर्भर था मेरी का मां जीवन। मेरी मां की तबीयत बहुत नाजुक थी, और डाक्टर ने सुबह उसको देखने के बाद मुझे बोल दिया था, हैप्पी अगर वो इस गुलूकोज की बोतल को पचा गई तो मैं उसको बचालूंगा। सबकी नजरें उस बोतल थी, और मेरी मां भी अब सुबह से बेहतर लग रही थी, उसके सिर के पास बैठी मेरी नानी कह रही थी, देख शिमला (मामी) कृष्णा के चेहरे पर पहले सा ताब नजर आ रहा है। मुझे यकीन है कि कृष्णा आज शाम तंदरुस्त होकर घर पहुंच जाएगी। वहां सब एक दूसरे का मन रख रहे थे, वैसे नानी के कहने अनुसार मेरी मां के चेहरे पर पहले जैसा ताब था, वो पहले से बेहतर होती नजर आ रही थी। और इधर गुलूकोज की बोतल खत्म होने पर ही थी।
उस सुबह की बात ही है, जब मैं ऑफिस के लिए तैयार हो रहा था, तो मेरी मां बोली। हैप्पी मेरी तबीयत खराब हो रही है, तुम मुझे आज सरकारी अस्पताल में दिखाकर आओ, मैंने कहा मां कल तो दवाई लेकर आए हैं, जिससे दवाई लाए थे वो बठिंडा का मशहूर जाना माना डाक्टर है। नहीं, हैप्पी मुझे तुम एक बार सिविल अस्पताल दिखा लाओ। वहां तुम्हारी जान पहचान के डाक्टर हैं, इलाज अच्छे से कर देंगे। मैंने कहा ठीक है। और वो आंखों में आंसू लेकर बोली, आज मुझे अपने घर छोड़ आना, जो हमने शहर में नया बनवाया था, गांव से शहर आने के लिए। मैं आज से वहां ही रहूंगी, तेरे पापा को गांव से आना हो या ना। लेकिन अब मैं गांव वापिस नहीं जाउंगी। मैंने कहा ठीक है।
मैं मां को लेकर अस्पताल पहुंचा, डाक्टर ने जांच करने के बाद कहा, इसको अस्पताल में दाखिल करना पड़ेगा, मैंने कहा ठीक है। अस्पताल में दाखिल होने की बात सुनकर अस्पताल में मेरी नानी, मामी और बुआ सब पहुंच गए, मैं और मौसी तो पहले से वहां पर थे। अब उसको गुलूकोज की बोतल लगाने की बात आई, तो वहां नर्स और अन्य डाक्टर हाजिर हो गए, किसी को मेरी मां के शरीर में नस नहीं मिल रही, वो जगह जगह सूईयां चुभ रहे थे, शायद यहां कोई नस मिल जाए। मैंने कभी मां को टीका लगता नहीं देखा, आज वो मेरे सामने उसके जिस्म में सूइयां चुभो चुभोकर देख रहे थे, जैसे किसी मुर्दे के शरीर में। मेरे मुंह से गाली निकल गई, डाक्टर मेरे जानकार थे, उन्होंने कहा हैप्पी तुम बाहर जाओ। आखिर डाक्टरों को नस मिली, वो भी टखने के उपर। अब मुझे थोड़ा सा सुकून आया।
बोतल आधी खत्म हो चुकी थी, और मेरी मां के चेहरे पर सुधार के संकेत साफ साफ नजर आ रहे थे। उसने कहा हैप्पी तुम परम (छोटी बहन) टैनी (बड़ा भाई) का रखना। उसने कहा मां पानी...मामी मौसी ने झट से नानी को पानी पकड़ा और मुंह में डालने लगी कि मेरी मां को अटैक आया, और दांत जुड़ गए। पानी की एक घुंट भी अंदर न गई। और सब खत्म हो गया। 28 फरवरी 2006 शाम पांच बजे मेरी माँ इस दुनिया को अलविदा बोलकर...और कुछ जिम्मेदारियां मेरे कंधों पर डोलकर चली गई।
4 टिप्पणियां:
बहुत दुखदायी होते हैं ऐसे क्षण
सुनकर बहुत दुःख हुआ भाई। लेकिन किया भी क्या जा सकता है। प्रकृति का यही दस्तुर है।
बेटे की कलम से माँ का अन्त पढ कर दिल रो उठा। पता नहीं कुछ लोगों को दुनिया से जाने की इतनी जल्दी क्यों हो ती है। और बच्चे क्यों रह जाते हैं माँ स महरूम् खैर उस उपर वाले की मर्ज़ी के आगे कोई क्या कहे भगवान उनकी आत्मा को शान्ति दे और तुम सभी बहन भाईयों को साहस। शायद उनकी तकदीर मे उस नये घर मे रहना नहीं लिखा था। जो जिम्मेदारी वो छोड् गयी हैं उसे पूरी करने का बल तुम्हें वाहेगुरू दे आशीर्वाद्
मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! आपकी माँ के बारे में सुनकर बहुत दुःख हुआ! माँ ज़िन्दगी में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं और उनके चले जाने का एहसास मैं बहुत अच्छी तरह से महसूस कर सकती हूँ! मेरी नानीजी तब गुज़र गई जब मेरी माँ एक साल उम्र की थी और अभी भी मेरी माँ कहती है कि उन्होंने कभी अपनी माँ को नहीं देखा और न उनका प्यार पाया ! आप हिम्मत मत हारिये क्यूंकि ज़िन्दगी का यही नियम है सभी को इस दुनिया छोड़कर एक न एक दिन जाना ही पड़ेगा पर इस सच्चाई को मानना बहुत ही कठिन है!
मेरे ब्लोगों पर आपका स्वागत है!
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