सोमवार, दिसंबर 21, 2009

शौचालय और बेसुध मैं

मुझे वो दिन कभी नहीं भूलता। उस दिन मैं काम कर कर बेसुध हो चुका था। मेरा शरीर गतीविधि कर रहा था, जबकि मेरा दिमाग बिल्कुल सुन्न हो चुका था, क्योंकि काम कर कर दिमाग इतना थक चूका था कि उसमें और काम करने की हिम्मत न थी। मैंने अपनी कुर्सी छोड़ी, और टहलने के लिए नीचे के फ्लोर पर चला गया, जहां चाय और कॉफी बनाने वाली मशीन लगी हुई थी। मैंने एक कप चाय ली, और घुस गया साथ वाले रूम में, जो बिल्कुल खाली था। सोचा कि एकांत है, कुछ समय यहां पर रहूंगा तो तारोताजा हो जाऊंगा। मैंने चाय का कप एक टेबल पर रखा, और पेसाब करने के लिए बाथरूम में चला गया।


मैं बाथरूम के भीतर गया और पेसाब करने लगा। जब मैं पेसाब कर रहा था, मुझे कुछ ऐसा लगा जो 'गलत' था। जो इससे पहले कभी मेरे साथ नहीं हुआ था। आज मुझे पेसाब करने के लिए पैरों की उंगलियों के बल होना पड़ रहा था। लेकिन आज तक तो ऐसा न हुआ था। मैंने सोचा कि पागल कारीगर ने पेशाब करने वाला बेसिन कितना ऊंचा लगा दिया। मुझे से छोटे कद वाले इस ऑफिस में बहुत लोग हैं, उनको कितनी मुश्किल आती होगी पेसाब करने में। इसकी शिकायत किसी ने शिकायत क्यों नहीं?

क्या प्रोजेक्ट लीडर ने भी इसकी तरफ ध्यान नहीं दिया? जिसका कद तो बहुत छोटा है। इतना सोच सोचते मैंने कैसे न कैसे पेशाब कर लिया। पेशाब करने बाद जैसे ही मैंने अपनी कम्प्यूटर की स्क्रीन पर काम कर कर थकी हुई आंखों को खोला, तो मेरी निगाह सामने लगे आईने पर गई। फिर क्या था आंखें खुली की खुली रह गई, दिमाग चित हो गया। गुम हुए होश लौट आए। मैंने देखा कि जिसमें मैंने पेशाब किया, वो पेशाब करने का नहीं हाथ धोने वाला वाश बेसिन है।

वहां पर मुझे ऐसी हकरत करते हुए देखने वाला कोई नहीं था, सोचो अगर वो सार्वजनिक होता तो...। इसके बाद मेरी हैरानी की कोई हद न रही, मुझे उस दिन अहसास हुआ कि काम का बोझ आदमी को किस तरह बेसुध कर देता है। इस घटना का केवल मुझे पता था, लेकिन मैं सोच रहा था कि अगर इतनी बड़ी गलती यहां हो गई तो काम में भी कुछ न कुछ तो हुई हो गई। और कोई गलती न हो। इसलिए मैं ऑफिस से घर के लिए निकल दिया। ये बात करीब दो साल पहले की है।

10 टिप्‍पणियां:

राजीव तनेजा ने कहा…

गलतियाँ इनसान से ही होती हैँ.... आप उसे स्वीकार किया...ये ही बहुत बड़ी बात है

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

कुलदीप भाई-एक नई बि्मारी आ गयी है जिसे "वर्क सिकनेस" का नाम दिया है। काम के बोझ से ऐसा हो जाता है। चलो ठीक हुआ किसी ने देखा नही, पर आज पता चल जाएगा।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

अपना ख्याल रखिए।

Ashish Shrivastava ने कहा…

आप के साथ जो हुआ वह आपकी मानसिक (शारीरीक भी) थकान को दर्शाता है ! यहाँ अस्वाभिक या अप्रत्याशित नहीं है | शरीर और मन को जो आराम चाहीये था वह आपने नहीं दिया !
आपके साथ जो हुआ है कुछ ऐसा ही मेरे साथ हो चुका है ! वजह एक जैसी ही थी बिना सोये तीन दिन तक लगातार काम करना ! और मै IT में हूँ.

Kulwant Happy ने कहा…

बिना सोए मैंने दो दिन से ऊपर काम किया था, उन दिनों हमारे पोर्टल पर वायरस आ गया था। उसका डाटा संभालते संभालते दो रातें और दो दिन लग गए थे।

Mithilesh dubey ने कहा…

संभल के भईया ।

स्वप्न मञ्जूषा ने कहा…

काम का बोझ और थकान ऐसा ही होता है...
बात तब की है जब y2k का काम चल रहा था...मैंने भी २ रात से झपकी भी नहीं ली थी और ८५ प्रोजेक्ट्स की जिम्मेवारी निभा रही थी....तीसरी रात घर लौटते समय आँख लग गयी ड्राइव करते हुए और उलटे लेन में चली गयी...साड़ी गाड़ियाँ सामने से आरहीं थीं और मैं जा रही थी......४०० मीटर जाकर होश आया...और गाडी रोक दी....पुलिस वालों की गिरफ्त में नहीं आई नही तो क्या मालूम क्या होता....
इसलिए ..शरीर की जितनी क्षमता हो उतना ही काम करना चाहिए उससे ज्यादा नहीं...

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

ऐसा तभी ज्यादातर होता है जब नींद पूरी ना ली जाए।ऐसा आप के साथ नही बहुतो के साथ हो जाता है..जब हम इसी प्रकार की गल्ती करते हैं....ऐसा मेरे साथ भी हो चुका है....जब मै गर लौटते समय अपने घर से द्वार से होता हुआ बहुत आगे निकल गया था....काफि आगे जा कर वापिस सुध लौटी...

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

आप नींद में थे; नींद में तो ऐसी घटनाएं हो ही जाती हैं.. आपने ब्लाग में स्थान द‍िया इसका मतलब यह हुआ क‍ि आप पर इस घटना ने ज्यादा प्रभाव डाला है..अब आप इसे भूल जांय .. यह कोइ अपराध नहीं था.

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

कुलवंत जी देवेन्द्र जी ने सही कहा इस घटना ने आप पर अत्यधिक प्रभाव डाला .....तभी ये बात आपने ब्लॉग पर सार्वजनिक की ...कम के बोझ में अक्सर ऐसा होता है क्योंकि दिमाग उस स्थान की जगह उन्हीं ख्यालों में उलझा रहता है ......!!


और हाँ ...... शुक्रिया इन पंक्तियों के लिए ...

पवित्र गंगा का नीर तुम हो
\ मीर गालिब कबीर तुम हो\
पढ़ता हूं जो कविताएं लगता है
दर्द से अमीर तुम हो।
शिव बाटलवी भी रह जाता पीछे,
कविता में वो पीर तुम हो।
पूछता है जमाना तुम आज आखिर
किस रांझा की हीर तुम हो।

वो राँझा अभी मिला ही नहीं ......!!