रविवार, फ़रवरी 22, 2009
आखिर मिला ग्रीन सिग्नल
शनिवार की रात को करीबन पौने दस बजे उसकी (मेरी पत्नी) बस गंगवाल बस स्टैंड से रवाना होनी थी और वो शादी के खुलासे के बाद पहली बार अपने घर जा रही थी, क्योंकि कुछ दिन पहले मेरे ससुर जी का फोन आया था और बोले थे कि घर में हवन रखा है, अगर तुम आओ तो अच्छा है, ऐसा अपनी बेटी से कहा उन्होंने. इसके साथ उन्होंने ये भी कहा क्या हैप्पी आने देगा, तो उसने फटाक से कहा कि वो तो बहुत बार कह चुका है, लेकिन मेरा मन नहीं कर रहा था क्योंकि कहीं आप मेरे आने से गुस्से न हो जाएं. उन्होंने कहा कि फिलहाल मैं मुम्बई में हूं और रविवार को तुमसे पहले घर पहुंच जाउंगा. शनिवार को वो घर के लिए रवाना हुई, लेकिन बस कमबख्त एक घंटे की देरी से चली, जिसके चलते हमको फिर घर वापस आना पड़ा. एक घंटे बाद हम फिर बस स्टैंड गए और बस आ गई थी, वो हंसते हंसते घर के लिए रवाना हो गई. सच पूछो तो घर वापसी किसे नहीं अच्छी लगती और खासकर उसको जिसने नौ माह से अपने घर के दर्शन न किए हों, जिसमें उसने बचपन गुजारा हो, जहां मां पिता की डांट सुनी और उनके प्यार के पालने में झूटे लिए हों. जिस घर में भाईयों और बहनों के साथ मस्ती में हंसते खेलते दिन गुजारे हों. रविवार की सुबह साढ़े नौ बजे के आस पास उसका फोन आया और बोली. बस कुछ मिनटों बाद मैं घर में प्रवेश कर जाऊंगी और तुम फोन मत करना क्योंकि घर में पूजा चल रही है, और मुझे जल्दी से तैयार होना है. मैंने कहा ठीक है बाबा, मैं कबाब में हड्डी क्यों बनूं, नौ महीनों बाद एक बेटी अपने माता पिता से मिलने जा रही हैं. मुझे इंतजार था कि वो घर पहुंचने बाद भी मौका पाकर फोन करे, सो उसने किया और कुछ की खबर सुनाई कि पिता के साथ साथ मां ने भी आशीर्वाद दे दिया. उसका फोन आने से पहले स्थिति पीली बत्ती की तरह थी, पता नहीं था कि इसके बाद बत्ती हरी हो गई या लाल. बस इंतजार था, अगले इशारे का. अब मां का आशीर्वाद मिल गया. मानो तो फिल्म सेंसर बोर्ड से पास हो गई, लेकिन देखना है कि विरोध करने वाले तो नहीं प्रभावित करेंगे.
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